५
वृन्दा के इशारे पर वानर और वानरी आकर कहेंगे, “ हे सुन्दरी, सुनो सुनो , वह बूढ़ी अम्मा आ रही है ।” यह सुनकर धनी गिरिधारी के हाथ पकडकर, कुंज से जल्दी बाहर आ जाएगी । अपने मुँह से चबाया हुआ ताम्बूल निकालकर रूप मंजरी को देगी । और फिर रूप मंजरी हम सब को बाँट देगी । मैं बडे आनंद के साथ, वह प्रसादी ताम्बूल ग्रहण करूँगी ।
मोतियों के हार टूट कर पलंग पर बिखरे हुए होंगे । मैं अपनी दुप्पट्टे में बड़े जतन से उन मोतियों को बाँध लूँगी । कोई ईश्वरी की शारी[1] को उठाएगी । और कोई तो जल की झारी ले लेगी । मैं चंदन, सिन्दूर का डिब्बा और आईना उठा लूँगी । साथ-साथ पान का डिब्बा भी ले लूँगी । और फिर बड़े आनंद से मैं ईश्वरी के पीछे पीछे जाऊँगी ।
धनी का दिल तो बड़ा ही व्याकुल होगा क्यों कि वे अपने प्राण वल्लभ से बिछड़ जो रही हैं । मैं उन्हें लेकर अपने भवन में ले जाऊँगी और उन्हें रत्न-पलंग पर सुला दूँगी ।
गुणवती के पीछे पीछे अब मैं अपने भवन लौटूँगी । श्री गुण मंजरी पलंग पर सोएंगी । मैं उनके चरणों के नीचे अपना दुप्पट्टा बिछाकर सो जाऊँगी । दीन कृष्णदास की यही अभिलाषा है । हा हा प्राणेश्वरी, कृपा करके तुम इस आशा को पूरण करो ।
[1] स्त्री तोता
One thought on “वृन्दावन – ५”