कुसुम-चयन

तोड़ने कुसुम चली जब राई,

नागर बाहें पसारकर जाई ।

 

सुवदनी गरविनी, दिल में आस,

झूठ्मूट रोई, होंठों पे मृदु हास ।

 

असूयादि भाव से भर गया अंग,

जलद अरुण आंखें, कितने विभंग ।

 

देख लेगा, सोच कर लागे भय,

भाव-विभंग को रोकना भी चाहे ।

 

ऐसे किलकिंचित में सजी है गोरी,

कानू आंचल धरे होकर विभोर ।

 

आधा पग चलकर चल न सकये,

यदुनन्दन कहे, ‘’रस का सार यह’’।