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अपने अपने मन्दिर को लौटते हुये, मुड़ मुड़ कर एक-दूजे को देखते हुये,
दिल में प्रेम-खीर-सागर उछलते हुये, सघन आंसू से नयन भीगते हुये ।
ओह माधव ! विदाय-प्रणाम कर रही हूं,
तेरा प्रेम साथ लिये जा रही हूं,
दर्शन का प्यास दिल में भर रही हूं ।
दर्द भरे दो दिल, उछला प्रेम-तरंग,
मुर्छित राई, मुर्छित माधव,
कब होगा दोनों का संग ?
ललिता सुमुखी, “सुमुखी[1]” पुकारे, राई को लेकर गोदी में,
सखियां ”कानु कानु” पुकारे, आंखें भीगीं आंसूवन में ।
कहां गया भोर होने का डर, कहां गया दारुण[2] लोक-भीत[3],
कहे माधव[4] – “बेपरवाह हैं दोनों, अद्भुत प्रेम-मुग्ध-चरित[5] “।
[1] राधारानी
[2] भयंकर
[3] लोक-भय
[4] कवि माधव-दास
[5] प्रेम का रीति है, कि दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हैं, जग का परवाह नहीं है ।