प्रातः लीला – गौरचन्द्र के रसालस, राधारानी के रसोद्गार

गौरचन्द्र – रसालस –

सबेरा होते ही,      शेज[1] त्याजहिं[2],

उठे गौर-विधु[3],

विगलित वेश,       अस्त-व्यस्त केश,

जैसे कोई नयी कुल-वधू[4]

देखें भकतगण       मेरे प्रियजन,

इसलिये उठ बैठे,

डाल रहे मधु,        कहे मृदु-मृदु,

रजनी विलास की बातें ।

”श्याम प्रीतम,    प्रीत अनुपम “,

आंखों से बहे जल,

कहे –  “अहा ! अहा !     प्रिय तुम कहां ?”

प्रभु हुये विह्वल ।

मन का भाव जहां,         अनुभवी वहां

कहे दास गोवर्धन,

“आते ही रजनी, मिलेंगे गुणमणि[5]”,

यह सुन गोरा हुये प्रसन्न ।

शची क नन्दा गोरा-चन्दा,

है त्रिभुवन का मोहन-फन्दा ।

नव-अनुराग में हुआ भोर,

अनुक्षण नयन से बहे लोर[6]

पुलकित तन, गदगद बोल,

पल चित्त स्थिर, पल में जाये डोल ।

ऐसन मधुर बोले भकतों के संग,

परमानन्द में[7] उठे प्रेम-तरंग ।

श्री राधा का रसोद्गार[8]

श्यामला, विमला,          मंगला अबला,

आयीं राधा के पास,

वे स्वतन्त्र हैं,  फिर भी राई में है,

उनके प्राणों का वास ।

उन्हें देखकर धनी,  उठ बैठी सुवदनी,

आकर गले से मिलीं, ।

कितने जतन से,     रतन आसन पे,

आदर से बिठाओली ।

राई मुख देख,       उन्हें हुआ महा-सुख,

कहे कौतुक-कथा-केलि

रजनी विलास,      सुनकर उल्लास,

अम्रुत से अधिक रसीली[9]

हास-परिहास में,   रस के आवेश में,

राधा हुई विभोर,

चण्डीदास-वाणी[10],        रात की कहानी,

सुनने को हम आतुर ।

(राधारानी कह रहीं हैं ) –

प्रिय की प्रीति हम कैसे कहें ?

लाख वदन[11] विधि न दिया हमें ।

गजमोती[12] का हार गले से उतार,

जतन से पहनाया प्रिय गले में हमार ।

हाथ पकड़कर प्रिय गोदी में बिठाया,

सुगन्धि चन्दन हमारे अंग पे लिपाया ।

फूलों से जूड़ा बांधा अनुपाम[13],

उसपे सजाया चम्पक दाम[14]

मधुर मधुर दृष्टि से देखा कान[15],

आनन्द-जल से भरे थे नयान[16]

कहे विद्यापति, बहे भाव-तरंग,

अब सुन सखी  ‘वह’ प्रसंग,

सखी, हम अबला, कुछ नहीं जान,

वह है रसमय और रसिक-सुजान ।

कितने जतन से मुझे गोदी में बिठाकर,

बांध दी वेणी जूड़े को खोलकर ।

कंचुकी दिया हृदय पर मेरा,

पयोधर-परश से हो गया भोरा ।

गले पहनाया मणिमय हार,

अंग पे लेपा कुंकुम अपार ।

विभिन्न छन्द से वसन पहनाया,

किंकिणी-जाल से नीबि को सजाया ।

मेरे मुख को पोंछकर निज कर-कमल से,

सजाया मेरे नयनों को काजल से ।

मस्तक पे सिन्दूर सजाया अति सुन्दर,

“बलिहारी जाऊं”, कहे कवि शेखर ।










[1] शय्या

[2] त्यागकर

[3] चान्द

[4] नई नवेली दुल्हन सुहाग-्रात के बाद वाले सबेरे में जैसे दीखती है, प्रभु वैसे दीख रहे थे. अह इस लिये, कि प्रभु रधारानी के भाव में थे ।

[5] रात होते ही गिणमणि श्याम्सुन्दर तुम्हें फिर से मिलेंगे – जब प्रभु ने भक्तों के मुंह से ऐसी बात सुनी, तब उनके दिल को ठंडक पहुंचा ।

[6] अश्रु

[7] प्रभु की इत्नी मधुर बातें सुनकर कवि परमानन्द दास के अन्दर प्रेम-तरंग उठते हैं ।

[8] रस भरी बातें

[9] राधा-कृष्ण के रजनी-विलास की बातें गीतिमय है, और वह अमृत से भी ज़्यादा मधुर है ।

[10] चण्डीदास कह रहे हैं

[11] मुख

[12] ्हाथी-दांत

[13] नुपम, अतुलनीय

[14] गुच्छा

[15] कान्हा

[16] नयन, आंखें

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