४
अन्दर की बात कह रही हूं मैं फिर से फंस गयी हूं
उसने जो डाला प्रीत का फन्दा,
रात-दिन रोती रहती हूं सिर्फ यही सोचती रहती हूं
ध्यान में श्याम-मुख-चन्दा ।
दिल पे दिल, प्रेम ऐसा है आंखों में सतत वही बसा है
फिर भी मुझे खोनेका उसको है डर,
वह छाती को चीरकर मुझे हृदय-बीच छुपाकर
रखना चाहता है प्रेम-क़ै्दी बना कर ।
मेरी बाहों को पाकर पिया हार पहनना छोड़ दिया’
उसे अब चन्दन और नहीं भाता,
जैसे अनेक जतन के बाद अनमोल रतन मिला है आज
मुझे कहां रखे, यह नहीं सूझता ।
अपने कर-कमलों से कर्पूर ताम्बूल सजाके
प्रीतम मेरे मूंह में है देता,
फिर देखो कैसे हंसकर मेरे चिबुक को पकड़कर
उसे मेरे मुंह से ले लेता ।
पिया जतन से सजाकर सुन्दर वसन पहिनाकर
खींच लेता है गोदी में,
हाथ में दीप लेकर मेरे चेहरे को निरखकर
भीगता है आंसूवन में ।
मेरे चरणों को पकड़कर उनको जावक से सजाकर
प्रेम से बांधता है केश-भार,
बलराम का चित्त इसी छवि में विभावित
केवल हड्डियां बचीं हैं सार ।
५
न पूछ न पूछ सखि पिया की प्रीत,
प्राण भी निछावर करूं तो न है उचित[1] ।
हिया से उतारकर कभी शेज पे न सुलाए,
वक्ष पे वक्ष, मुंह पे मूंह, ऐसे रात बिताये ।
नींद के आलस में यदि पलटा मैंने करवट
“क्या हुआ, क्या हुआ ?” कह चौंकता है उठ ।
हृदय पे हृदय और बदन पे बदन,
नाक पे नाक और नयन पे नयन ।
अगर मैंने छोड़ा दीर्घ-श्वास,
आकूल होकर पिया उठए त्रास ।
ऐसे बीताये रातें दोनों मिलकर,
ज्ञान दास देखें प्रसन्न होकर ।
मधूरिका –
६
देवी भगवती पौर्णमासी ख्याति
सबेरे स्नान कर
देखने को कान्ह चलीं होके प्रसन्न
आयीं नन्द के घर ।
सर पे सफेद केश तपस्विनि का वेश
भगवा वस्त्र पहनकर
वेदमय बातें करतीं सर को हिलातीं
हाथ में छड़ी पकड़कर ।
नन्द-रानी देखकर आयीं दौड़कर
गि्र पड़ीं चरणों के तल,
उन्हें बाहों में भरकर देवी सर परशकर
बोले आशीश-बोल ।
“सती-शिरोमणि अखिल-जननी
मेरे प्राण तुझपे निसार,
पति-पुत्र के साथ गौ-बछड़ों के साथ
कुशल होवे तोहांर ।
रानी उन्हें लेकर जल्दी से आकर
दिखाये पुत्र का वदन,
अंग को परशकर उठाये पकड़कर
प्रेम से भरीं हैं नयन ।
आंखों के नीर से स्तनों के क्षीर[2] से
भीगे शयन-वास
धनिष्ठा के पास खडे होकर मन में हंसे,
यह यदुनन्दन दास ।
[1] श्याम-सुन्दर की प्रीत ऐसी है कि प्राण देकर भी इसकी कीमत नहीन चुकता कर सकते ।
[2] दूध