सोने का वर्ण हैं गौरचन्दा,
जगत की आंखों का फन्दा ।
उसपे कितने भाव-प्रकाश,
कौन समझे ये रस-विलास ?
कैसे कहूं पहुं[1] के चरित ?
उनकी तो आंसू-भरी पिरीत ।
पुलकित हैं प्रेम-अंकुर,
हर अंग सुख से भरपूर ।
बादल जैसे करते हैं गर्जन[2],
चारों तरफ प्रेम का वर्षन ।
पुलकमय सारा बदन ऐसे,
सुवर्ण कदम्ब का फूल हो जैसे ।
करुणा से रो रहे भकत,
कान्हाप्रिया कृपा मांगत ।
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जगन्नाथ मिश्र के घर सखा करे शोर,
निताई-गौर प्रेम में सभी हैं विभोर ।
सेवक करें सेवा बड़ी जतन से,
दोनों के चरण धुलाकर पोंछे वसन से ।
दोनों भाइओं के उतारे आभरण,
पहिनाये भोजन के योग्य वसन ।
भोजन घर में रत्न आसन बिछाकर,
सोने के गिलास रखे जल से भरकर ।
निताई गौर आकर बैठे आसन पे,
पिताजी को बुलाने लगे प्यार से ।
सुनकर मिश्र जल्दी से पधारे,
दोनों तरफ दो बेटे प्यारे ।
तरह तरह के भोजन परोसें,
सभी लें स्वाद, और प्रशंसे[3] ।
आचमन के बाद ताम्बूल चर्वन,
भकतगण करें चामर-बीजन ।
अलस अवश अंग, पलंग पे शयन,
स्वरूप रहकर करे चरण सेवन ।
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