श्री गौरचन्द्र के भोजन और विश्राम –

 

सोने का वर्ण हैं गौरचन्दा,

जगत की आंखों का फन्दा ।

 

उसपे कितने भाव-प्रकाश,

कौन समझे ये रस-विलास ?

 

कैसे कहूं पहुं[1] के चरित ?

उनकी तो आंसू-भरी पिरीत  ।

 

पुलकित हैं प्रेम-अंकुर,

हर अंग सुख से भरपूर ।

 

बादल जैसे करते हैं गर्जन[2],

चारों तरफ प्रेम का वर्षन ।

 

पुलकमय सारा बदन ऐसे,

सुवर्ण कदम्ब का फूल हो जैसे ।

 

करुणा से रो रहे भकत,

कान्हाप्रिया  कृपा मांगत ।

 

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जगन्नाथ मिश्र के घर सखा करे शोर,

निताई-गौर प्रेम में सभी हैं विभोर ।

 

सेवक करें सेवा बड़ी जतन से,

दोनों के चरण धुलाकर पोंछे वसन से ।

 

दोनों भाइओं के उतारे आभरण,

पहिनाये भोजन के योग्य वसन ।

 

भोजन घर में रत्न आसन बिछाकर,

सोने के गिलास रखे जल से भरकर ।

 

निताई गौर आकर बैठे आसन पे,

पिताजी को बुलाने लगे प्यार से ।

 

सुनकर मिश्र जल्दी से पधारे,

दोनों तरफ दो बेटे प्यारे ।

 

तरह तरह के भोजन परोसें,

सभी लें स्वाद, और प्रशंसे[3]

 

आचमन के बाद ताम्बूल चर्वन,

भकतगण करें चामर-बीजन ।

 

अलस अवश अंग, पलंग पे शयन,

स्वरूप रहकर करे चरण सेवन ।

 

 

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