श्याम के अंग अनंग तरंगिम[1] त्रिभंगिम धारी,
भाव विभंगिम[2] रंगिम[3] दृष्टि बंकिम नयन निहारी[4] ।
सखी री ! रसवती के साथ नाचे रसिकवर राय,
अपरूप रास-विलास कला में कोटी काम मुरछाय[5] ।
कुसुमित केलि-कदम्ब वृक्ष के सुगन्धी शीतल छाये[6],
बांधूली-बन्धू[7] मधुर अधर धर मोहन मुरली बजाय ।
कामिनी कोटी नयन-नील-उत्पल परिपूजित मुखचन्दा[8],
गोविन्द दास कहे, “ वह रूप नहीं, जग-मानस शशी[9]-फन्दा ।“
९१
नीरज-नयना[10] उठायीं वीणा,
सभी कलाओं में अति प्रवीणा ।
मधुर मधुर बजाये ताल, मदन-मोहन-मोहिनी ।
झंकृत झंकृत झनक झंक,
चलत उंगली, डोलत अंग ।
कुटील नयन करत भाव, अंग-भंगी सोहिनी ।
ललिता ललित धरल ताल,
मोहित मदन-मोहन-लाल ।
कहत, “ वाह ! वाह ! राधा गुण-शालिनी ! “
तरुणी गण एक होकर,
सभी यन्त्र बजाये मिलकर,
मुरली पे सुर छेड़त कान सुन्दर राग मालिनी ।
मत्त कोयल गाये मधुर,
भौरें भी मिलाये सुर ।
मुरली-धुन करे घन गर्जन, नाचे मत्त मोरिनी[11] ।
वृन्दावन सुखद धाम,
जहां विहरे राई-श्याम,
तरुणी गण विमल वदन गावे धुन कितनी ।
गाये शुक, गाये पिक,
गाये पंछी इक-इक,
फुल्ल[12] अनिल[13] फु्ल्ल मदन फुल्ल सोहिनी रजनी ।
ललिता कहे मधुर बात,
कानू नाचे राई के साथ,
“अंग-भंग सरस रंग”, शेखर कहे सच-वचनी ।
९२
तत्ता थै थै बजे मृदंग,
नाचे विधुमुखी[14] अंग विभंग ।
बड़े कठिन ताल कानू ने दिये,
तब ललिता सखी को हर्ष भये[15] ।
कानू कहे, “सुन्दरी, सुनो वचन,
इस ताल पर चलाओ चरन” ।
सुचतुर मदन-मोहन-लाल,
नागर बजाये विषम ताल ।
नाचत सुवदनी कितने छन्द,
देख चकित सब सहचरी-वृन्द ।
कोई कहे, “धन्य हो !”, कोई जयकार,
कानू ने दिया अपना गुंजाहार ।
पहिनाते वक़्त धनी के वक्ष पे स्पर्ष,
कहे शेखर, “नव अनुराग का हर्ष” ।
९३
मधुर वृन्दावन, नाचे किशोरी-किशोर,
अंग डोलत, मुख देखत, रस में दोनों भोर ।
शिर शिखण्ड-वेणी[16], मत्त मयुर फणी[17], वक्ष पे वनमाल,
चौदिग व्रजवधू, पंचम गावत, आनन्द में दें कर-ताल[18] ।
डोलत कुण्डल, नील-पीत अंचल, नुपूर-किंकिनी बोल,
डफ-रबाब खमके, स्वर्ग-मण्डल चमके, दस दिग हेम हिलोल[19] ।
चंचल चलत धनी, उल्लसित मेदिनी[20] देवकुल देखें विभोर,
कहे माधव दास, पूरी हुई मन की आस, देखकर युगल-किशोर ।
९४
जल-विहार
सब कला-रस-सागर नागर-नागरी मुख-शशी आवेश[21],
केलि-विलास-श्रम से श्रमित, कालिन्दी में किये प्रवेश ।
देखो देखो सखी ! यह सुन्दर जल-विहार !
सीत्कार निकले, दोनों बरसायें मदन पर शर-फुहार ।
नील वसन भीगे तन, व्यक्त होवे हर अंग,
नलिनी-जोड़ी धनी कुच-मण्डल, मुर्छये अनंग ।
सो अब नख से दागे हरि, मनसिज होवे उदास,
उन्हींको बाहों में लिये घेर, कहे घनश्याम दास ।
९५
नहाकर उठे दोनों पोंछें अंग,
पहिने कोमल वसन सुरंग[22] ।
रतन मन्दिर में दोनों जन गये,
बहुत मधुर फल भोजन किये ।
ताम्बूल खाई[23] शयन करें तांई[24]
निद्रित नागर नागरी राई ।
अपरूप ऐसे रोज़ रोज़ विलास,
देखकर आनन्दित माधव दास ।
९६
सुखमय वृन्दाबन, सुखमय श्याम,
सुखमयी राधा अति अनुपाम ।
दोनों मिलकर केलि-विलास करें,
दोनों के अधरामृत दोनों मुख भरें ।
दोनों तन पुलकित, दोनों तन भोर,
विनोदिनी राधा विनोदिया क्रोड़[25] ।
दोनों केलि-पंडित, रूप-गुण सम,
विलास विक्रम में कोई नहीं कम ।
सूरत मूरत दोनों के प्रकाश,
रतिपति को लागे बहुत त्रास ।
अद्भूत रति-रण, दूर रहे लाज,
नुपूर किंकिनी रून-झून बाज[26] ।
नहीं कोई कमी, अखंड रस विलास
दोनों करें पूर्ण जीवन की आस ।
एक तन, एक मन, एक ही प्राण,
दोनों अंग एक, मनसिज निरमाण ।
श्रम जल से पूर्ण दोनों के देह,
दोनों रति-युद्ध में नहीं पाये थेह[27] ।
एक-दूजे को चूमकर करें रण-समापन,
दोनों की सेवा में भागें उदग्रीव सखियन ।
९७
रति-रण से थके युगल को ताम्बू्ल जुगाये,
मलयज कुमकुम, मृगमद कर्पूर बदन पे लगाये ।
हाय ! अपरूप कितना प्रिय सखी-प्रेम !
कोटी प्राण निछावर, नहीं तुल लाखबाण हेम[28] ।
मनोहर माला दोनों गले अर्पये[29], बीजये[30] मृदु वात[31],
सुगन्धी शीतल जल पीकर दोनों होवे शान्त ।
दोनों के चरण संवाहन कर श्रम किये दूर,
प्रेममयी सेवा पाकर दोनों हुये भोर ।
कुसुम शेज पर दोनों निद्रित, सखियों को होवे सुख,
राधामोहन दास जब देखेगा, तब मिटेंगे सब दुख ।
॥ मधुरेण समापयेत ॥
[1] श्याम के अंग में अनंग (कामदेव) की लहरें बहती हैं अर्थात उनका सौन्दर्य बड़ा ही रतिवर्धक है ।
[2] उनके हाव-भाव बड़े ही आकर्षक हैं ।
[3] उनके देखने का अन्दाज़ रंगीला, अर्थात, मनमोहक है ।
[4] वे तिरछी नज़रों से निहारते हैं ।
[5] जब श्याम और श्यामा जु रास-नृत्य करते हैं, तो उनके रास-विलास इतना कलात्मक होता है, कि करोड़ों कामदेव उसे देखकर मुर्छित हो जाये ।
[6] युगल सरकार के केलिरस का प्रभाव कदम्ब वृक्ष पर भी पड़ता है । इसलिये वह कुसुमित हो जाता है, और चारों तरफ सुगन्ध पसरता है । उसकी छाया भी शीतल हो जाती है ।
[7] लाल रंग का फूल
[8] गोपियां कामिनी हैं, और उनकी आंखें नील-कमलों की भांति हैं; वे अपने मनमोहन की तरफ एकटक देख रही हैं । ऐसा लग रहा है जैसे कि वे अपनी आंखों से उनके मुख-चन्द्र की पूजा कर रहीं हों ।
[9] सुन्दर फांद
[10] राधा
[11] मोरनी, मयुरी
[12] प्रफुल्लित
[13] पवन
[14] चन्द्रमुखी राई
[15] हुये
[16] श्यामसुन्दर के शिर, अर्थात, सर पे शिख्ण्ड-वेणी, अर्थात, मोर-पंख, लगा हुआ है ।
[17] वे मदहोश होकर नाच रहे हैं; उनकी चुड़ा पर सजे मोर-्पंख ऐसे डोल रहे हैं जैसे मयुर मत्त होकर, सांप की तरह डोल रहा हो ।
[18] हाथों से ताली बजा रहे हैं ।
[19] गोपियों के स्वर्ण वर्ण से दस दिग हिचकोले खाने लगे ।
[20] धनी के चरण-स्पर्ष पाकर, मेदिनी (धरती) उल्लसित हो गयी ।
[21] आवेश = एकटक ध्यान; नागर-नागरी एक-दूसरे के मुख-चन्द्र (शशी) को निश्चल ध्यान से देख रहे हैं ।
[22] सुरंगीन
[23] खाकर
[24] तांही = वहीं पर
[25] गोदी ; राधारानी विनोद-नागर की गोदी में सो गयीं हैं ।
[26] बज रहे हैं
[27] थेह नहीं, अर्थात, राई-कानू के रति-युद्ध अथाह है ।
[28] लाखबाण हेम = जिस सोने को लाखों बार शुद्ध किया गया हो । विशुद्ध सोना भी सखियों के प्रेम की बराबरी नहीं कर सकता ।
[29] अर्पण करें
[30] बीजन करें, पंखा करें
[31] हवा