श्री श्री राधा-कृष्ण के रास-विलास

श्याम के अंग अनंग तरंगिम[1] त्रिभंगिम धारी,

भाव विभंगिम[2] रंगिम[3] दृष्टि बंकिम नयन निहारी[4]


सखी री ! रसवती के साथ नाचे रसिकवर राय,

अपरूप रास-विलास कला में कोटी काम मुरछाय[5]


कुसुमित केलि-कदम्ब वृक्ष के सुगन्धी शीतल छाये[6],

बांधूली-बन्धू[7] मधुर अधर धर मोहन मुरली बजाय ।


कामिनी कोटी नयन-नील-उत्पल परिपूजित मुखचन्दा[8],

गोविन्द दास कहे, “ वह रूप नहीं, जग-मानस शशी[9]-फन्दा ।“


९१


नीरज-नयना[10] उठायीं वीणा,

सभी कलाओं में अति प्रवीणा ।


मधुर मधुर बजाये ताल, मदन-मोहन-मोहिनी ।


झंकृत झंकृत झनक झंक,

चलत उंगली, डोलत अंग ।


कुटील नयन करत भाव, अंग-भंगी सोहिनी ।


ललिता ललित धरल ताल,

मोहित मदन-मोहन-लाल ।


कहत, “ वाह ! वाह ! राधा गुण-शालिनी ! “


तरुणी गण एक होकर,

सभी यन्त्र बजाये मिलकर,


मुरली पे सुर छेड़त कान सुन्दर राग मालिनी ।


मत्त कोयल गाये मधुर,

भौरें भी मिलाये सुर ।


मुरली-धुन करे घन गर्जन, नाचे मत्त मोरिनी[11]


वृन्दावन सुखद धाम,

जहां विहरे राई-श्याम,


तरुणी गण विमल वदन गावे धुन कितनी ।


गाये शुक, गाये पिक,

गाये पंछी इक-इक,


फुल्ल[12] अनिल[13] फु्ल्ल मदन फुल्ल सोहिनी रजनी ।


ललिता कहे मधुर बात,

कानू नाचे राई के साथ,


“अंग-भंग सरस रंग”, शेखर कहे सच-वचनी ।


९२


तत्ता थै थै बजे मृदंग,

नाचे विधुमुखी[14] अंग विभंग ।


बड़े कठिन ताल कानू ने दिये,

तब ललिता सखी को हर्ष भये[15]


कानू कहे, “सुन्दरी, सुनो वचन,

इस ताल पर चलाओ चरन” ।


सुचतुर मदन-मोहन-लाल,

नागर बजाये विषम ताल ।


नाचत सुवदनी कितने छन्द,

देख चकित सब सहचरी-वृन्द ।


कोई कहे, “धन्य हो !”, कोई जयकार,

कानू ने दिया अपना गुंजाहार ।


पहिनाते वक़्त धनी के वक्ष पे स्पर्ष,

कहे शेखर, “नव अनुराग का हर्ष” ।


९३


मधुर वृन्दावन, नाचे किशोरी-किशोर,

अंग डोलत, मुख देखत, रस में दोनों भोर ।


शिर शिखण्ड-वेणी[16], मत्त मयुर फणी[17], वक्ष पे वनमाल,

चौदिग व्रजवधू, पंचम गावत, आनन्द में दें कर-ताल[18]


डोलत कुण्डल, नील-पीत अंचल, नुपूर-किंकिनी बोल,

डफ-रबाब खमके, स्वर्ग-मण्डल चमके, दस दिग हेम हिलोल[19]


चंचल चलत धनी, उल्लसित मेदिनी[20] देवकुल देखें विभोर,

कहे माधव दास, पूरी हुई मन की आस, देखकर युगल-किशोर ।


९४


जल-विहार


सब कला-रस-सागर नागर-नागरी मुख-शशी आवेश[21],

केलि-विलास-श्रम से श्रमित, कालिन्दी में किये प्रवेश ।


देखो देखो सखी ! यह सुन्दर जल-विहार !

सीत्कार निकले, दोनों बरसायें मदन पर शर-फुहार ।


नील वसन भीगे तन, व्यक्त होवे हर अंग,

नलिनी-जोड़ी धनी कुच-मण्डल, मुर्छये अनंग ।


सो अब नख से दागे हरि, मनसिज होवे उदास,

उन्हींको बाहों में लिये घेर, कहे घनश्याम दास ।


९५


नहाकर उठे दोनों पोंछें अंग,

पहिने कोमल वसन सुरंग[22]


रतन मन्दिर में दोनों जन गये,

बहुत मधुर फल भोजन किये ।


ताम्बूल खाई[23] शयन करें तांई[24]

निद्रित नागर नागरी राई ।


अपरूप ऐसे रोज़ रोज़ विलास,

देखकर आनन्दित माधव दास ।


९६


सुखमय वृन्दाबन, सुखमय श्याम,

सुखमयी राधा अति अनुपाम ।


दोनों मिलकर केलि-विलास करें,

दोनों के अधरामृत दोनों मुख भरें ।


दोनों तन पुलकित, दोनों तन भोर,

विनोदिनी राधा विनोदिया क्रोड़[25]


दोनों केलि-पंडित, रूप-गुण सम,

विलास विक्रम में कोई नहीं कम ।


सूरत मूरत दोनों के प्रकाश,

रतिपति को लागे बहुत त्रास ।


अद्भूत रति-रण, दूर रहे लाज,

नुपूर किंकिनी रून-झून बाज[26]


नहीं कोई कमी, अखंड रस विलास

दोनों करें पूर्ण जीवन की आस ।


एक तन, एक मन, एक ही प्राण,

दोनों अंग एक, मनसिज निरमाण ।


श्रम जल से पूर्ण दोनों के देह,

दोनों रति-युद्ध में नहीं पाये थेह[27]


एक-दूजे को चूमकर करें रण-समापन,

दोनों की सेवा में भागें उदग्रीव सखियन ।


९७


रति-रण से थके युगल को ताम्बू्ल जुगाये,

मलयज कुमकुम, मृगमद कर्पूर बदन पे लगाये ।


हाय ! अपरूप कितना प्रिय सखी-प्रेम !

कोटी प्राण निछावर, नहीं तुल लाखबाण हेम[28]


मनोहर माला दोनों गले अर्पये[29], बीजये[30] मृदु वात[31],

सुगन्धी शीतल जल पीकर दोनों होवे शान्त ।


दोनों के चरण संवाहन कर श्रम किये दूर,

प्रेममयी सेवा पाकर दोनों हुये भोर ।


कुसुम शेज पर दोनों निद्रित, सखियों को होवे सुख,

राधामोहन दास जब देखेगा, तब मिटेंगे सब दुख ।


॥ मधुरेण समापयेत ॥



[1] श्याम के अंग में अनंग (कामदेव) की लहरें बहती हैं अर्थात उनका सौन्दर्य बड़ा ही रतिवर्धक है ।

[2] उनके हाव-भाव बड़े ही आकर्षक हैं ।

[3] उनके देखने का अन्दाज़ रंगीला, अर्थात, मनमोहक है ।

[4] वे तिरछी नज़रों से निहारते हैं ।

[5] जब श्याम और श्यामा जु रास-नृत्य करते हैं, तो उनके रास-विलास इतना कलात्मक होता है, कि करोड़ों कामदेव उसे देखकर मुर्छित हो जाये ।

[6] युगल सरकार के केलिरस का प्रभाव कदम्ब वृक्ष पर भी पड़ता है । इसलिये वह कुसुमित हो जाता है, और चारों तरफ सुगन्ध पसरता है । उसकी छाया भी शीतल हो जाती है ।

[7] लाल रंग का फूल

[8] गोपियां कामिनी हैं, और उनकी आंखें नील-कमलों की भांति हैं; वे अपने मनमोहन की तरफ एकटक देख रही हैं । ऐसा लग रहा है जैसे कि वे अपनी आंखों से उनके मुख-चन्द्र की पूजा कर रहीं हों ।

[9] सुन्दर फांद

[10] राधा

[11] मोरनी, मयुरी

[12] प्रफुल्लित

[13] पवन

[14] चन्द्रमुखी राई

[15] हुये

[16] श्यामसुन्दर के शिर, अर्थात, सर पे शिख्ण्ड-वेणी, अर्थात, मोर-पंख, लगा हुआ है ।

[17] वे मदहोश होकर नाच रहे हैं; उनकी चुड़ा पर सजे मोर-्पंख ऐसे डोल रहे हैं जैसे मयुर मत्त होकर, सांप की तरह डोल रहा हो ।

[18] हाथों से ताली बजा रहे हैं ।

[19] गोपियों के स्वर्ण वर्ण से दस दिग हिचकोले खाने लगे ।

[20] धनी के चरण-स्पर्ष पाकर, मेदिनी (धरती) उल्लसित हो गयी ।

[21] आवेश = एकटक ध्यान; नागर-नागरी एक-दूसरे के मुख-चन्द्र (शशी)  को निश्चल ध्यान से देख रहे हैं ।

[22] सुरंगीन

[23] खाकर

[24] तांही = वहीं पर

[25] गोदी ; राधारानी विनोद-नागर की गोदी में सो गयीं हैं ।

[26] बज रहे हैं

[27] थेह नहीं, अर्थात, राई-कानू के रति-युद्ध अथाह है ।

[28] लाखबाण हेम = जिस सोने को लाखों बार शुद्ध किया गया हो । विशुद्ध सोना भी सखियों के प्रेम की बराबरी नहीं कर सकता ।

[29] अर्पण करें

[30] बीजन करें, पंखा करें

[31] हवा