होरी आयी रे !

बायीं तरफ पुष्प-बाण लेकर कान,

और अवतंस में  सुन्दर पुष्प-बाण ।

 

बांयी कर-कमल में मणि-पिचकारी धरे,

अंग के भुषण त्रिभुवन के नारी-चित्त हरे ।

 

सूक्ष्म शुक्ल वस्त्र पहिरे, कमर में बंसी धरे ।

आंचल में बन्धा गन्ध-चुरण, किसीको खबर न पड़े ।

 

कान्हा पिचकारी गन्ध-जल उभारये,

रंगीले रसिया आज रसीली को भिगाये ।

 

आश्चर्य यन्त्र की बात, उसका रसमय फुहार,

एक मूंह से निकलकर शत-शत होत है धार ।

 

सहस्र धारा होकर आकाश में उछले,

लाखों धारा बनकर गिरे धरती तले  ।

 

करोड़ों धार बनकर कान्ताओं को भिगाये,

ऐसे ही श्यामसुन्दर प्रियायों को सताये ।

 

गन्ध-चुरण की शीशियां लेकर कान्हा,

ज़ोर से धरती पे पटककर मार दीन्हा ।

 

शीशी टूटकर पड़े गोपियों के तन,

घोल निकलकर बना लाखों गुन ।

 

गोपियों के अंग पर कुंकुम का साज,

अब उनके बीच है मृगमद विराज ।

 

राधिका को घेर लीं सब सहचरी,

पीछे से आकर जुगाये पिचकारी ।

 

मणि-पिचकारी धरे राज-नन्दिनी,

अंग पे झलके भुषण – हीरे और मणि ।

 

सुक्ष्म वस्त्र मे श्याम की नज़र चुराये,

पीछे से सखियां गन्ध-चुरण जुगाये ।

 

पिचकारी गन्धवारि डारे धनी पिय पर,

अब सखियां आगे आकर भिगोये दिलवर ।

 

राई की पिचकारी की कसे करूं वर्णना ?

त्रिभुवन के इतिहास में नहीं कोई तुलना ।

 

एक मूंह से निकलकर धारा हज़ार बन जाये ,

लाखों धारा बनकर आस्मान पहुंचये ।

 

कोटी धारा बनकर गिरे धरती पर ,

अर्वूद धारा हो भिगोये श्यामसुन्दर ।

 

ऊपर-नीचे चारों तरफ छा जाये अन्धकार,

और प्रियतम जी पर बरसे रस भरमार ।

 

गन्ध-चुरण की शीशियां हैं अनन्त,

उनमे भरें है राई ने गन्ध अनगिनत ।

 

चुरण की एक शीशी राई धरती पर मारे,

उससे एक गोली निकल कर जो गिरे,

 

वह एक गोली बढ़कर होवे लाखों गुना,

कृष्ण और सखाओं को सताये दुगुना ।

 

कुंकुम के बीच जितने धब्बे गोपी-अंग पर,

उससे दुगुना धब्बे हैं सखाओं के अंग पर ।

 

फाग खेलें राई-कानू होकर उनमत्त,

सखियां देखें होकर प्रसन्न-चित्त ।

 

दोनों की शोभा वर्णन न जाये,

अनुपम सौन्दर्य-लावण्य बहाये ।

 

एक दूसरे के चेहरे पर मारे रंग,

अबीर गुलाल पिचकारी के संग ।

 

सटक गये हैं तन से भीगे वसन,

 दोनों दोनों के हर रहे हैं मन ।

 

नयन-शर से श्याम को बिन्धे सुवदनी,

मदन से घायल किया नागर को धनी ।

 

दोनों के कितने ही सुन्दर विलास,

देखकर सखियां सुख-सागर में भास ।

 

रसवती रसराज के रसमय खेला,

दिल को उनमत्त करे रसमय लीला ।

 

कान्हाप्रिया कहे तुलना नहीं होय,

दोनों हैं एक जान, तन रसमय ।

 

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नागरी नागर                गुलाबी वसन धर,

                श्रम भरे झरे है घाम,

दोनों मुख-इन्दु              चूवत स्वेद बिन्दु,

                गुलाबी मुक्ता-दाम ।

 

दोनों हैं प्रेम-दीवाने        इश्क़ के परवाने,

                दिल जिनके आनन्द-पुंज,

दोनों में है जोश             प्रेम में हैं मदहोश,

                जा बैठे निर्जन-निकुंज ।

 

रतन सिंहासन              मणिमय आसन,

                दीवार सुन्दर सुठाम,

सभी सखीगण               करतहिं सेवन,

                समय उचित है जान ।

 

वारि झारि भरि            देई गुण-मंजरी,

                कोई सखी चंवर डुलाए,

तन हैं रंगीले         अधर रसीले,

                कान्हाप्रिया ताम्बूल धराए ।