प्रातः लीला – ३

इधर वह किंकरी, राधा का उत्तरी[1] पीतवास खींच लिया,

झट से नीलाम्बर राधा के वक्ष पर तेज़ी से डाल दिया ।

 

विशाखा-वचन सुन मुखरा उस क्षण हुई लज्जित अति,

 मुझे बहुत काम है, फालतु वक्त किसे है ? कहकर गई शीघ्र गति ।

 

रात्रि-अवसान, सब दासीगण ने जल्दीसे किया काज[2],

वेश का मन्दिर[3], सजाकर  सुन्दर, रखा वेश का साज[4]

 

ऐसी ही है दासियों की रीत,

जानकर मर्म[5], करते हैं कर्म, इसीमें उनकी जीत ।

 

दशन-माजनी[6] रसना-शोधनी[7] रखा थाली भरकर,

कर्पूर सहित  गन्ध चूर्णित रख दिया जतन कर ।

 

निर्मल जल सुगन्धी शीतल गागर में भरकर,

मुख-पखालन[8] को, स्नान करने को, रखा वेदी पर ।

 

गामछा[9] धोकर, निजल[10] कर, रखा अलग से,

तेल और आवंला, लेकर श्यामला, आयी चुस्ती से ।

 

उबटन[11] करि, कनक-मंजरी लाई होकर धीर,

मंजरी रतन[12] करके जतन लाई सिनान-चीर[13]

 

वहां गुणवती, कर्पूर-मालती, का खुश्बू जल में भर,

विधि-अगोचर[14], अनेक उपहार, लायी थाल भरकर ।

 

विचित्र वसन, उसको ढक्कन, बनाया परम सुख से[15],

राई का इंगित[16], रखा गोपत[17], ताकि और कोई न देखे ।

 

कर्पूर ताम्बूल, मालती-माल, शेखर जतन से रखा,

वह पीत-वसन, लाकर उसी क्षण अपने घर में रखा ।


 


[1] उत्तरीय, दुपट्टा

[2] काम

[3] वह कमरा जहां राधाजी वेश-भूषा करती हैं

[4] वेश की तैयारी जैसे पोशाक़ रखना, गहनों को सजाकर रखना आदि ।

[5] दिल की बात

[6] टूथ-ब्रश

[7] जीभ-साफ करनेवाला

[8] पखालन = धोना

[9] बहुत पतला तौलिया

[10] जल को निकाल दिया

[11] उबटन = साबून बनाकर

[12] ्रत्न-मंजरी

[13] स्नान के लिये उपयोगी वस्त्र

[14] विधि अर्थात ब्रह्माजी के भी अगोचर अर्थात मालूम नहीं

[15] मंजरी ने उस पीले वसन (विचित्र वसन) को बड़ा सुखी होकर अपना ढक्कन (दुपट्टा) बनाया

[16] इशारा

[17] गुप्त ; राई ने इशारा किया कि इसे छुपाकर रखना