प्रातः लीला – श्री राधा – स्नान-वेशादि –

तब सखियां  राधा के दिल को किया शान्त ,

सुनाकर श्याम-बन्धुआ के गुण-गान अनन्त ।

सुबदनी धनी दिल को शान्त कर,

फिर से रतन-आसन पे बैठी आकर ।

वह शोभा ऐसी कि कहा न जाय,

दासियां श्री-अंग के भुषण खिसकाय ।

पाकर अवसर               बैठी जाकर

घेर लिया सखीगण,

तब सखीगण                 उतारे भुषण,

पहनाया स्नान-वसन ।

“सखी, देख तो राई के रंग !”

जैसे यहां रति-पति[1] ने घायल किया युवती

और वेश को किया भंग !

तेल और आमलकी          लगायीं सब सब सखी

उबटन से हटाये मैल,

सुगन्धि जल में              स्नान कराके

श्रीअंग किया शीतल  ।

गामछा लाकर               अंग पोंछकर

नीलिम वास पहनाया,

वेश के मन्दिर में            जा बैठीं झट से

सखियों ने घेर लिया ।

अगुरु-धूप देकर             केश-भार सुखाकर

चन्द्र-चुर्ण से किया मार्जन,

केशों को पकड़कर          सोने की कंघी लेकर

धीरे धीरे किया शोधन ।

सखी चम्पा-दाम लायी

सुन्दर वेणी बनाकर                चामरिका देकर

मणिमय परान्दा सजायी  ।

चुड़ामणि ललाटिका               सजाया प्रेमाधिका

ललाट पर सिन्दूर-बिन्दु,

बिन्दु-बिन्दु सुचन्दन                चारों तरफ किया अंकन

जैसे अरुण पर शोभे इन्दु।

अंजन से रचा नेत्र           गाल पर मकरिका-चित्र

चक्रिका-कुण्डल दिया कानों पर,

तिल-फूल नासा पर                दिया गज-मुक्ता वर

जो डोले सदा अधरों पर ।

चिबुक पर कस्तुरी-बिन्दु                   देकर देखे मुखेन्दु,

सखियां आनन्द में डूब गयीं,

हेमांगद भुज-उपरि                 कलाइयों में नील चुड़ी

उंगलियों में अंगुरी पहनाईं ।

वक्ष पर पत्रावली           और विचित्र चित्रावली

ऐसे सजाया कुचों को,

पहनाया गुलाबी कांचुली          पकड़कर पट्ट-डोरी,

कसके बांधा उसको ।

मुक्ता-हार दिया गले में डाल          पहनाया मालती का माल

बीच में पदक सजाये

पहनाया जाल किंकिनि            बीच में सोहे  रक्त-मणि

खीन कटी की शोभा बढ़ाये ।

चरण कमलों पर            दिया हंसक  नुपूर

पदाम्बुज दल पे हेमांगुरी,

पाद-पद्म वक्ष पे धर                अलता से चित्र कर,

निरखे सब किंकरी ।

कुंकुम चन्दन देकर          सब अंग सजाकर,

कराम्बुज में नीलाम्बुज,

मणि-दर्पण लाकर,                 धनी के आगे ्धरकर

दर्शन कराया  मुखाम्बुज ।

कर्पूर की बत्ती से            आरति की प्रेम से

सखियां आनन्दित हुईं,

देख कर रूप-माधुरी,       नयन से झरे वारि,

सखियां घिरकर आईं ।

हा हा वृन्दावनेश्वरी,               तेरी प्रिय सहचरी

गुणमञ्जरी के साथ जब

कृष्णदास उसी क्षण                सेवानन्द में होगा मगन

ऐसा दिन आयेगा कब ?


[1] कामदेव