भोर हुआ जैसे दास-दासियों से
मैया कराये काम-काज,
जिसका जो काम, सो करे अनुपाम,
होकर तत्पर आज ।
रसोई-मन्दिर ऐसा इन्द्र का महल हो जैसा
इतना यहां दौलत,
धनिष्ठा-सुन्दरी ने रसोई की चीज़ें
रखा जैसे कोई अमानत ।
जलाने को इन्धन लाई वह चन्दन,
और दिया जतन से,
बैठने को आसन पानी का बरतन
सब रखा पास में ।
नाज़नीन राधिका रस की पूरिका,
जानती है रसोई अनगिनत
विधि को न खबर रसोई मनोहर
जिनकी बेशुमार है लज्ज़त ।
मालती कर्पूरा मनोलोभा मनोहरा
बनाई हसीना ने ,
कदम्बा बनायी और पद्मा रेवड़ी
मलाई भर भर के ।
मोतीचूर सुमधुरा अमृत-केलिका
और लड्डू तरह तरह के,
खण्ड पद्मचीनी ठण्डाई फिरनी,
और खुश्बूदार पेड़ॅ ।
गजा खाजा पेड़ा छेना चन्द्र-चुड़ा,
और विविध कचोरी,
पूरीयों को तलकर उन्हें रस में डालकर
बनाया रस-पूरी ।
मलाई उठाकर चीनी में पकाकर
बनाईं मलाई-पूपी,
माटिरी-शर्करा रस-पूरी-झरा
और अमृत-कूपी ।
सुगन्धि शीतल करके निर्मल
सोने के थाल पे सजाया,
भोजन के भवन में करके जतन
ढंककर रख दिया ।
खुश्बूदार अन्न और विविध व्यञ्जन,
राधिका ने पकाया,
साग, परमान्न पिष्टक पक्वान
वेदी पर धर दिया ।
कहे कवि शेखर, मैया के पास जाकर
बोलीं हसीनाएं अब,
रानी मां, सत्वर[1] देखिये चलकर
राधा ने ढाया गज़ब !
[1] जल्दी से