कानू तनू का स्पर्श पाकर सुधामुखी,
प्रसन्न प्रफुल्लित तन, हुई महासुखी ।
कंचुक खुद ही गिरा बन्धन तोड़कर,
नीवि गिरी नितम्ब से खिसककर ।
उज्ज्वल लाल अन्तर्वास चाहे फिसलना,
पर फिसलने न दे अनंग का पसीना ।
एक कर से कृष्ण-कर रोके नितम्बिनी,
दूसरे कर से नीबि को धरे है धनी ।
आनन्दित धनी जतन कर बांधे नीबिबन्ध,
मौका पाकर कृष्ण निरखे कुचकुम्भ-छन्द ।
अश्रु मिश्रित मुस्कान, गदगद वाणी,
तर्जन-गर्जन और गालियां दे सुवदनी ।
प्रणय-सुख से है वाम्य का सृजन,
कृष्ण को हाथ से ्किया ताड़न ।
कंगन से हुआ कन कन शब्द संचार,
कमल पर अलि का जैसे हों झंकार ।
जल्दी से ललिता ने रोका कान्हा को,
कुन्दलता बोली, ‘’चलो पंचदेव पूजन को’’ ।
सखियां दोनों को लेकर कुंज में गयीं,
वहां जाकर हास्य-रस में विभोर हुईं ।
कामदेव का याग जब रचा कान्ह,
कुन्दलता को लिया पुरोहित मान ।
कृष्ण कहे, ‘’ काम-व्रत का करो आचरन,
कुन्दलते, तुम करो पूजा का अधिष्ठान ।“
कुन्दलता बोली, ‘’मैं पूजा से हूं अनजानी,
नान्दीमुखी से ्थोड़ी बहुत है सुनी ।
इसीलिये मेरी बात मान, प्रिय कान्ह,
तुम ही करो पूजा का विधान’’ ।
याग-भूमि बनी शशीमुखी का तन,
उस पर पंडितजी पढ़े मन्त्र-वचन ।
बांये कुच पर कर-कमल रखकर,
शुरु किया ‘’नमः गणेशाय’’ कहकर ।
धनी के गाल को गाल से स्पर्ष करे,
और ‘’नमः दिनमणि’’ का मन्त्र उच्चारे ।
फिर तीन जगह – बाहें, नीबि और वदन
पे किया शिव, पार्वती और विष्णु का पूजन ।
फिर कृष्ण पूजा-विधि का किया आरम्भ,
कुन्दलता, ललिता ्चुपचाप देखें रंग ।
पंचदेव जब पूज रहा था कान्ह,
कुपित कमलमुखी के अरुण हुये नयान ।
भौंहें चढ़ाकर कुटील नजर से निहारी,
आंसू मिश्रित मुस्कान, दी बहुत गारी ।
राधिका अधर और नयन-्युगल,
दो गाल, कुचयुग, मुख और भाल ।
इन नौ स्थानों पे किया नवग्रह-पूजन,
अपने लाल लाल होंठ सर्वत्र धरन ।
ढीठ कृष्ण नट भट्ट, नटिनी विशाखिका,
कुन्दलता-ललितादि ये सब हैं विदुषिका ।
इतने ही में कर्णोत्पल मे मारी कुन्दलता (she pulled his lotus ears)
और बाकी सब सखियां कहे कृष्ण कथा ।
अब कन्हैया को सूझी नट्खट्पन,
सखियों के पीछे भागे करने को पूजन ।
दो-दो सखियों ्की बनी एक गूट,
कान्हा को रोकन वास्ते हुये एकजूट ।
सखियां एक दूजे को दिखाये करके इशारा,
अर्थात उसके पास जाओ, मुझे न सताना ।
तब श्याम उसे छोड़ दूसरी के पास जाये,
वह भी चातूरी करके किसी और को दिखाये ।
किसी का अंग पूजे, किसीको करे स्पर्श,
किसीकी कंचुलिका खेंचे होके बड़ा हर्ष ।
कोई तो विनय करे, पर कोई करे तर्जन,
किसी का वस्त्र पकड़कर श्याम करे आकर्षण ।
इस तरह से सखियों के वदन और नयन,
करके स्पर्श, सुखी हुये व्रजेन्द्रनन्दन ।
इस तरह राधा-श्याम सखियों के संग,
विविध विलास करे और बहे रस तरंग ।
ऐसन कितने ही विलास में विभोर,
हुआ यदुनन्दन रस-सागर में सराबोर ।