वृन्दावन – ८

१६

 

 

व्रजेश्वरी कहेंगी – “ सुनो, मेरी सुंदरी गौरी, तुम तो वृषभानु महाराज के कुल के सूरज हो । पूरे त्रिभुवन में तुम्हारा यश विस्तारित है । यह तो मेरे घर का सौभाग्य है कि तुम यहाँ पर आई हो । तुम्हें ॠषी दुर्वासा का वर मिला है , इसीलिए तुम्हारा हाथ अमृत समान हो गए हैं । तुम जो भी भोजन बनाती हो, उसे पाकर व्यक्ति निरोगी हो जाता है । तुम्हारे हाथों का भोजन पाकर मेरा बेटा भी निरोग हो जाएगा ।

 

ये मीठी बातें सुनकर मैं मूंह नीचा कर लूंगी । मेरे होठों पर शरारत भरी मुस्कान छा जायेगी । मन ही मन कहूंगी, “ हां , ब्रजेश्वरी माते, आप सच बोल रहीं हैं । आप के बेटे को प्रेम-रोग हो गया है । मेरी प्राणेश्वरी उसके लिये उचित वैद्य है ।“

 

धनी, तुम मेरे दिल की बात भलीभांति जानती हो, इसलिये तुम मेरी तरफ देखकर मुस्कुराओगी । यह देखकर मैं भाव-विभोर हो जाऊंगी ।

 

 

फिर से व्रजेश्वरी कहेंगी कि , “बेटी तुम अभी पाकशाला में जाओ और रसोई करो” । तब तुम सखियों के साथ रसोई की तरफ जाओगी । मोहन मंदिर के पास एक रंगीलि मंदिर है। तुम बड़े आनंद के साथ वहाँ प्रवेश करोगी । तब मैं उस पीताम्बर को धनिष्ठा के हाथों दे दूँगी । और फिर तुम्हारे चरण कमलों को धुलाऊँगी । चरण कमलों को पोंछकर तुम्हारे अंग से अलंकार उतार लूँगी । तुम्हें वह वस्त्र पहनाऊँगी जो रसोई करने के वक्त पहनना चाहिए । धनिष्ठा कृष्ण अधरामृत लाकर देंगी और तुम सखियों के साथ भोजन करोगी । तुम्हारे सुंदर चेहरे को धोकर मैं तुम्हारे मुख में तांबूल अर्पण करूँगी । वह दिन कब आएगा जब तुम्हारे चबाया हुआ तांबूल मुझे प्रसाद स्वरूप मिलेगा ?

 

रसोई में जाकर तुम रोहिणी माता को प्रणाम करके बैठोगी । और तब तुम्हारे इच्छा अनुसार मैं हल्दी , नमक, घी लाकर तुम्हारे हाथों में देती रहूँगी । कृष्णदास की बस यही प्रार्थना है । आ हा , सुधामुखी धनी, कब वह दिन आएगा, जब मैं देख पाऊँगी कि तुम रसोई कर रही हो और  ललिता , विशाखा जैसी सखियाँ तुम्हें घेरी हुई हैं । तुम चार तरह के भोजन बनाओगी – चर्व, चोष्य, लेह्य और पेय । इन भोजन का सुगंध कितना मन मोहक होगा !! मैं उसे नेत्र भरकर देखूँगी ।

 

तुम कितने ही तरह के भोजन बनाओगी जैसे, साग, शुकता, सूप और चटनी । सब भोजन अद्भुत, अपरूप, अतुलनीय होंगे । फूलों का भजिया और कितने ही तरह की सब्जियाँ होंगी । अनंग मंजरी आनंदित मन से लौकी और परमान्न बनाएँगी । रोहिनी माता आकर मुझे आदेश देगी और मैं चांद जैसी गोल गोल रोटियां बना दूँगी । फिर मैं तुम्हारे पास जाकर कड़ाही में घी डालूँगी, और तुम उसमें तरह तरह के आकार के जलेबी बनाओगी । फिर तुम उस घी में पूरियाँ तलोगी, कचोरी तलोगी, दाल के वड़े बनाओगी । मोतीचूर के लड्डू, मनोहरा , रेवरी, कदंब, गंगाजली – न जाने कितने ही तरह के मिष्ठान बनाओगी । उसके बाद तुम और भी मिष्ठान बनाओगी जैसे अमृत गुटिका, पीनी, सरभाजा, पद्मचीनी, शष्कुलिका और खाजा अमृत केली , मरीचा, कर्पूर केली, आरिशा, खिरीशावली, रसकूपी, तिला और दही वड़े । उसके बाद तुम मूंग और पियूष ग्रंथी , अनंग गुटिका, रस बड़े, केले के बड़े, पेड़े, जिलोपी, रसालावली, चंद्र्कांती, सुमाधुरी, मण्डा, दही, दूध और चिवड़ा के पकवान बनओगी । घी से भीगा हुआ अन्न, दही से भीगा हुआ चंद्र चूर्ण, और दूध में भिगोया हुआ अमृतसार बनाओगी ।

 

मैं फलों को आमान्य कर वेदी पर रखूँगी । कितने ही फलों को मैं आमान्य करूँगी जैसे आम, पनस, और तरह तरह के स्वदिष्ट कासन्दि । मैं कब तुम्हारा आदेश पाकर यह सेवा करूंगी ?

 

तुम्हारे इशारे पर मैं दूधघर में जाऊँगी जहाँ चंपक मंजरी होती है । जाकर देखूँगी कि वह उधर कितने तरह का भोजन बना चुकी है । उसे देखकर मेरे नयन तृप्त होंगे । बरतनों में मनोहर और खुश्बूदार ताज़े घी रखे होंगे । मैं देखूंगी कि चम्पकमंजरी ने दूध को घना करके उसमें शक्कर ड़ालके एक अलग बर्तन में रखा है । फिर दही , शिखरिनी, मलाइ, मख्खन ये सब तो हैं ही । मैं इन सब चीज़ों को उठा लूंगी और उसके साथ धीरे धीरे वेदी पर लाकर रखूंगी ।

 

व्रजेश्वरी वहाँ आकर इन अन्न, व्यंजन को देखकर बहुत प्रसन्न होंगी । वे कहेंगी – “बेटी रूप और रति, राधिका तो पसीना पसीना हो गई है । उसे तुम लोग वीजन करो” । इतना कह कर वे चली जायेंगी । मैं तुम्हें लेकर दूसरे कमरे में बिठाऊंगी । सुवासित पानी से तुम्हारा मुख कमल धुलाऊंगी, और पतले वस्त्र से पोंछूंगी । फिर धीरे धीरे वीजन करूंगी । कृष्णदास प्रार्थना करता है कि कब मेरा ऐसा नसीब होगा ?

 

१७

 

अब बड़े खुशी के साथ श्याम सुंदर मस्ती से बलदाऊ के हाथ पकड़कर भोजन मंदिर में प्रवेश करेंगे । उनकी बांई तरफ सुबल सखा होगा और उनके आगे भांड़ मधुमंगल, इंद्र, ये सब सखा होंगे । ओ हो, सुधामुखी गौरी, ललिता आदि सखियों के साथ तुम खिड़की में आँखें डालकर देखोगी । मेरा ऐसा नसीब कब होगा जब मैं भी तुम्हारे साथ खड़ी होकर इस दॄश्य को बड़े आनंद से देखूँगी ?

 

व्रजेश्वरी वहाँ आकर तुम्हें बड़े प्यार से कहेंगी , “ बेटी राधे, अब तुम खाना परसो” । तुम सर हिलाकर कहोगी – “नहीं नहीं , मैं ऐसा नहीं कर सकती ।“ मैं इस सुन्दर दृश्य को अपनी आँखों से देखूँगी । अब श्री हरि अपने सखाओं के साथ रत्न आसन पर भोजन करने बैठेंगे । तुम अन्न व्यंजन लाकर माता रोहिनी के हाथ अर्पण करोगी । तुम्हारे मुख मंडल पर कितना आनंद छाया होगा ! पहले पकवान्न और बाद में अन्न, व्यंजन आदि । उसके बाद दूध में डुबोया हुआ अन्न, उसके बाद दही में डुबोया हुआ अन्न और कासंदी, और सारी चटनियां, फिर रोटी और आखिर में परमान्न । भोजन के बाद श्री हरि सुखी होकर आँखों के कोने से तुम्हारा मुख मंडल देख रहे होंगे । इसे देखकर , हे सुधामुखी , तुम अपने खंजन जैसे नयनों को नचाओगी । यह देखकर मुझे कितना सुख होगा ! इस तरह कृष्ण चंद्र अपने सखाओं के साथ कितने कौतुक और हास परिहास करते हुए भोजन करेंगे । भोजन के बाद वे आचमन कर शयन मंदिर की तरफ जाएँगे ।

 

हे गौरी, तुम फिर से खिड़की में आँखें ड़ालकर सखियों के साथ कृष्ण-मुख देखोगी । तुम्हारी आँखों से आँसु टपकेंगे । तुम्हारे अंग में पुलक छाए होंगे और मैं अपनी आँखों से इस दृश्य को देखूँगी ।

 

अचानक व्रजेश्वरी वहाँ पर आ जाएँगी । यह देखकर हे सुधामुखी , तुम बड़ी ही लज्जित हो जाओगी । कुन्दलता तुम्हें हाथ पकड़कर भोजन मंदिर में ले जाएगी । सभी सखियाँ तुम्हारे साथ भोजन मंदिर में प्रवेश करेंगे । काश मेरा ऐसा नसीब कब होगा कि इस समय तुम्हारे चरण धुलाकर अपनी ओढ़नी से पोछूँगी ? मैं रत्नासन बिछाकर जल की झारी रखूंगी । कृष्ण दास की सिर्फ यही अभिलाषा है ।

 

१८

 

हे ईश्वरी, तुम सखियों के साथ बैठकर भोजन करोगी – कब करुणा करके यह सुन्दर दृश्य मुझे दर्शन कराओगी ? अहा विधुमुखी ! तुम्हारी दांई तरफ ललिता और तुंगविद्या बैठेंगी, और तुम्हारी बांई तरफ अनंगमंजरी , विशाखा और चित्रा जैसी सखियां बैठेंगी । कुन्दलता सोने की थाली में पक्वान लायेगी । माता ब्रजेश्वरी प्यार से व्याकुल होकर कहेंगी, “ सुन धनी, जैसे कीर्तिदा तेरी मां है, वैसे मैं भी तेरी मां हूं । प्यारी सुवदनी, मेरे लिये  बेटा कृष्ण और तुझमें कोई फर्क़ नहीं है । कितनी मेहनत किया है तू ने ! बेटी, तुझपे मैं बलिहारी जाऊं ! अब तू शर्म त्यागकर भोजन कर  ; देखकर मेरे नयन तृप्त होवे ।“ मैं कब ब्रजेश्वरी की ये मधुर बातें सुन पाऊंगी ? और सुनकर पुलकित हो जाऊंगी ? मैया की बातें सुनकर सुमुखी लजा जायेंगी, और चेहरा को नीचा कर लेंगी । तुम्हें लज्जिता देखकर ब्रजेश्वरी वहां से चली जायेंगी, ताकि तुम बिना हिचकिचाये भोजन कर सको । तब कुन्दलता छुपाकर कृष्ण का शेष अन्न लाकर देंगी । उसे पाकर तुम खुशी से फूली न समाओगी । धनी, तुम अपने प्राणवल्लभ का शेष अन्न पाकर  आनन्द के साथ भोजन करोगी । और कब मैं तुम्हारे पीछी खड़ी होकर बीजन करूंगी ?

 

भोजन के बाद तुम सखियों के साथ मिलकर  चौकी पर बैठोगी । मैं खुश्बूदार पानी से तुम्हारे सुन्दर मुख को धुलाऊंगी और पतले वस्त्र से पोंछूंगी । इसके बाद तुम सखियों के साथ रंगिली मन्दिर में जाकर आसन पर बैठोगी । कब मैं कर्पूर और ताम्बूल तुम्हारे मुख-कमल में दूंगी ? तुम्हारा इशारा पाकर रूपमंजरी और बाकी प्रियनर्म सखियां भोजन करने जायेंगी – क्या यह कृष्ण्दास भी उनके पीछे पीछे जायेगा ?

 

१९

 

हे रूप मंजरी, ऐसा दिन कब आएगा ? कब मेरा ऐसा नसीब होगा ? तुम सब भोजन कर रही होंगी और मैं इस सुंदर दृश्य को कब देखूँगी ? भोजन के बाद बड़े आनंद से तुम आसन पर बैठोगी । कर्पूर से सुगंधित जल सोने की झारी में भरकर लाऊँगी । श्री गुण मंजरी और श्री मंजुलाली के मुख-कमल धुलाऊँगी । हे रूप मंजरी, जब श्री गुण मंजरी इशारा करेगी तब मैं तुम्हारा मुँह धुलाऊँगी और पोछूँगी । फिर तुम सब वहाँ जाओगी जहाँ विधुमुखी बैठी होगी । मैं कृपावती के साथ बैठकर तुम्हारा शेष अन्न  पाऊँगी । मैं कितना सुखी होकर यह प्रसाद पाऊँगी !! फिर उस कमरे को धो डालूँगी । बर्तनों को मांजकर तुम्हारे पास बैठूँगी । हे रूप, तुम राधारानी का चबाया हुआ तांबूल मुझे बड़े प्यार से दोगी । मैं तुम्हारे इशारे पर राधिका के चरण दबाऊँगी । ऐसा दिन कब आएगा ? दीन कृष्ण दास ऊँचे आवाज़ में रो रहा है कि कब मेरा भी ऐसा नसीब होगा ?

 

 

२०

 

 

हे प्रिये प्राणेश्वरी, हे मेरे धनी, सखियों के साथ तुम आराम कर रही होंगी, और तभी विनोद नागर मस्ती के साथ खिड़की में से अंदर आ जाएगा । ओ प्यारी, कब मैं वह लीला देखूँगी ?

 

 उसे देखकर सखियों के साथ तुम हंस पड़ोगी । हे सुमुखी , ललिता मुस्कुराकर कहेंगी – “ ओ ढीटों के राजा, सुनो, तुम्हारी माँ अभी यहाँ पर आ जाएगी । तुम्हें कोई शरम और डर है क्या” ?”  यह सुनकर विनोद नागर गाल पर उंगली रखकर कहेगा – “ ओ ललिता, मुझे लड़कियों के वस्त्र पहनाकर एक सखी क्यों न बना लेती ?” ललिता कहेगी – “ ये सब कला हमें नहीं आती । चल तेरे भाभी के पास जाते हैं । और उस कुंदलता से कहते हैं, कि इस विनोद नागर को सखी सजा दो – इसे गुलाबी रंग का वसन पहना दो । इसकी भी वेणी बना दो । इनके ललाट पे सिंदुर की बिंदी रचाओ । आँखों में काजल डालो । नाक में नकसेर पहनाओ, और बाहों में सोने की चूड़ियाँ । इसके वक्ष स्थल पे फूलों से बनाये गये दो कंदुक[1] लगाओ और उसके ऊपर उसे कंचुकी पहना दो । कंचुकी के ऊपर हार ड़ालो । और इन सभी अलंकारों के सहारे सुचतुरी कुंदलता तुम्हें सखी सजा देगी । वैसे भी तुम मोहन हो ही, ऊपर से तुम सखी बन जाओगी । हम तुम्हें श्यामा सखी कहेंगी और फिर बड़े मजे के साथ तुम हम सखियों के बीच बैठी रहोगी ” ।

 

 

ललिता ऐसे मुँह बनाकर और हंस हंस कर इन बातों को कहती है कि सुनकर मुझे बड़ा मज़ा आ रहा है । ऐसा नसीब दीन कृष्ण दास का कब होगा ? हाय हाय प्राणेश्वरी ! मुझ पर कृपा करो और मेरी इस आशा को पूरी करो ।

 

 

 



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