कहे राई, ‘’यह रूप है बड़ा अपरूप,
साक्षात में होवे चमत्कार,
तरुण तमाल है क्या ? नवमेघ है क्या ?
क्या यह है इन्द्रनीलमणि ?
हे सखी ! इस अतुलनीय दरशन से तृप्त हुए मेरे तृषित नयन !
त्रिभुवन-नारी-मन करे आकर्षण,
रूप नहीं, है यह रस-सिन्धु, इसका सिर्फ एक तरंग-बिन्दु
करे नारी-प्राण-निमज्जन ।
अंजन का पर्वत है क्या ? भृंग-पुंज है क्या ?
क्या जमुना आई, होकर मूर्तिमती ?
इन्दीवर की राशि है क्या ? ब्रजांगना के अपांग है क्या ?
या शायद मेरे ही प्राणपति ?
क्य ये ही हैं मन्मथ-राज ? लेकिन उनका तो है अतनू-साज,
उनसे कई बढ़कर ये रसराज-्राज !
कामदेव तो हैं तन-हीन, जब कि ये हैम रस-प्रवीण,
समझ में न आये इनका राज़ !!
क्या ये रस के सुधा-निधि ? या कोई सुख के निधि ?
जिसमें हों अगाध रसाल !
या कल्पतरु जैसे प्रेम-रस? जो झर रहा है परबस ?
पर वह तो है स्थिर निश्चल ।
क्या मेरे नेत्र बन गये भृंग-पद्म और प्रीतम बने कोई अनन्द-सद्म ?
या कोई स्फुर्ति ? सखी, करो निश्चय ।“
कहकर मधुर गदगद वाणी, देखो, सर्वांग हुये पुलकित धनी,
राधा-चरण करके स्मरण यदुनन्दन गाय ।