१५
राग रामकेलि
सखियों को देख कमल-मुखी,
शरमाकर आधा मुख ढंकई,
हरि-मुख-चन्द्र निहारई ।
माधवी लता के घर में,
बैठे रसवती और रसराज,
कुसुम-केलि-शय्या[3] पे दोनों विराजे,
चारों तरफ रंगिनी-समाज[4] ।
गोरी के वदन-विधु[5] देखकर,
श्याम हुए आनन्द-मगन,
बार बार पीत-वसन से पोंछ दे[6]
निर्झर झरै आंसूवन[7] ।
देखकर सखियों के लोचन भर आये,
प्रेम-अश्रु से भीगे तन,
बलराम के दिल-ओ-नैन कब शीतल होंगे ?
कब होगा युगल-प्रेम दर्शन ?
[1]अनदेखा
[2]कमल जैसी आंखों के कोने से
[3]फूलों से बनी शय्या जो रति-केलि के योग्य है ।
[4]सखियां रंगीली हैं, इसलिये महाजन कवि उनको रंगिनी कह रहे हैं ।
[5]मुख-चन्द्र
[6]श्यामसुन्दर किशोरीजु के मुख को अपने पीत वसन से पोंछ रहे हैं ।
[7]कन्हैयाजु की आंखों से प्रेम-अश्रु झरने की तरह बह रहे हैं ।
१६
राग कौ-ललित
ललिता सखी बलिहारी जाई,
श्याम-गोरी-मुख-मण्डल झलकई[1],
छबि अति सुन्दर उठई[2] ।
कुसुमित कुंज कुटीर मनमोहन,
कुसुम-सेज पर नवल किशोर,
कोकिल-मधुकर पंचम गावत,
नव वृन्दावन आनन्द-विभोर ।
निशान्त में जागे श्याम-सुन्दरी,
बैठे सखियों के संग,
श्याम-मुख धनी ढंक दे,
जब वे बताने लगे रात-रंग[3] ।
देख ललिता मृदु मृदु हंसत,
पुलकित हुआ तन,
नील वसन से देह ढंके सुन्दरी,
लज्जित हुआ बदन ।
देख राई-मुख श्याम-नागर,
उन्हें फिर से लिया गोद में,
दास नरोत्तम देखे युगल-किशोर
आनन्द-हिल्लोल बहे तन में ।
[1]श्यामसुन्दर और किशोरीजु के मुख चमक रहे हैं ।
[2]ललिता सखी युगल-किशोर के निशान्त-कालीन सौन्दर्य की छवि बना रही है, यह तस्वीर अच्छे से उभर रही है ।
[3]जब प्रीतमजु यह बताने लगे कि रात्रि में किशोरीजु ने प्रेम रस में मग्न होकर कैसी हरकतें की, और क्या क्या कहा, तो किशोरीजु ने शरमा कर उनके मुख पर हाथ रख दिया ।
१७
तथा राग
ललिता सखी ने देखा कि प्रीतमजु राधारानी को छेड़ने की कोशिश कर रहे हैं ; इसलिये वह ज़रा गुस्से से बोली –
कुसुम-जड़ित कबरी[1] खोली,
मुख पर बिखेरा केश-पाश,
हाय ! दीख रही प्यारी ऐसी,
राहु ने किया चन्द्र-ग्रास[2] ,
सखी को कितने प्यार से हमने
कुंकुम-चन्दन से सजाया,
चुम्बन से मिटाया केसर-सज्जा[3],
काजल, सिन्दूर दूर भगाया !
जान गई कान्हा, कठोर दिल तेरा,
क्या किया तूने सखी का हाल !
दांतों से होठों को फाड़ दिया,
मोतीम[4] माला को किया बेहाल ।
नख के निशान सारे अंग पर,
वक्ष और कुच पर अनगिन,
सखी मेरी अतनु का भण्डार[5],
ऐसे तनु को किया मलिन !
सज्जन जानकर तेरे हाथों में,
मैंने राई-हाथ दिया थाम,
अकेली पाकर इस को सताया,
निर्जन में किया ऐसो काम !!
सच कहते हैं बृजवासी,
कि तू वृन्दावन-डकैतिया[6] !
बलराम कहे, “बस करो सखी !
ना दो और उलहनियां[7] ।“