८
राग कौराग
आहिस्ता छोड़ गोरी उठ बैठी,
नागर-राज भी जागे,
वह सुख पाने, फिर से नागरी,
सो गयी उनकी आग़ोश में ।
हरि ! हरि !
अब सुख-यामिनी-शेष,
रति-रस-भोरी[1] गोरी जोड़ी[2] सो गयी,
विगलित वसन और केश ।
रत्न-प्रदीप समीप लाकर श्याम,
प्रेम से चिबुक धरे,
राई चन्द्र मुख-मण्डल,
कितना प्रेम से निहारे !
प्रेम भरे दिल से प्रीतमजु
देखकर राई-मुख निर्मल,
रोक न सके खुद को
नयनों से बहे जल ।
विपुल पुलक हुये दोनों तन पर,
दोनों शरीर लगे कांप[3],
कब बलराम देखेगा,
मिटेगा हृदय-संताप[4] ?