१०
राग ललित
चले पश्चिम की ओर,
पद्मिनी-वदन[3] मधुप[4] घन चूमे[5],
त्याग कर कुमुदिनी-क्रोड़ ।
जागी रे वृषभानु-कुमारी !
श्याम-गोद में गोरी हुई मगन,
फिर से बोल पड़े शुक-शारी ।
“यामिनी-तिमिर स्थिर नहीं देखो[6] !
परसे सुन्दर अरुण रंग !“
नागरी के नील अंचल पर
जैसे लगा विरहानल-रंग [7]।
(पंछियों ने कहा -)
“रभस[8] और सुधा-रस[9] चोरी हो गया,
दुर्जन बाट देखत है[10] ! “
गोविन्द दास कहे, “चलो सखि,
पपीहा संकेत देवत है ।“
[1] सगण = तारों के साथ
[2] रजनीकर = चन्द्र
[3] कमल के मुख
[4] भ्रमर
[5] सूरज निकल आने पर भ्रमर अब कुमुदिनी को छोड़कर कमल से मधु चून रहे हैं ।
[6] यामिनी (रात) क तिमिर (अन्धकार) स्थिर नहीं, अर्थात अन्धेरा दूर हो रहा है ।
[7] सूर्य की किरणों में किशोरीजू का आंचल लाल रंग का दीख रहा है; ऐसा लग रहा है जैसे कि उसमे विरह की आग लग गई है ।
[8] रति-सुख जनित उत्तेजना
[9] श्याम के होठों का मधुर रस; सूर्य देव ने इन दो रसों को चोरी कर लिया है ।
[10] किशोरीजू के ससुरालवाले