आवत रे मधुमंगल की टोली,
देख सखागण बजाये ताली ।
चलते ही चरण पड़े तीन बंक[1],
पग कलंकित कालिन्दी-पंक[2] ।
बोलते ही मुख पर करे कितने भंग[3],
नाचे ज़ोर से और बजावत अंग ।
भोजन-सर्वस्व, नहीं प्रतिबन्ध[4],
हर रोज़ सुबह लगाये द्वन्द्व[5] ।
मिष्ठान पक्वान लोभी बावला-चित्त,
इनके लिये गिरवी रखे यज्ञोपवीत[6] ।
कभी न देखा ऐसा छलिया,
प्यार से देवे दस गालियां ।
गोविन्द दास करे गुन-गान,
द्विज-पग पे लाख प्रणाम[7] ।
[1] मधुमंगल आगे बढ़ने के लिये हमेशा तीन पग लेता है, और वे तीन पग बंक अर्थात टेढ़े होते हैं ।
[2] मधुमंगल के पैर कालिन्दी के पंक अर्थात मिट्टी से मैले (कलंकित) होते हैं ।
[3] भंगिमा
[4] मधुमंगल के लिये भोजन ही सब कुछ है; उसके मुताबिक खाने पीने के मामले में कोई नियम लागू नहीं हो्ना चाहिये ।
[5] हर सुबह भोजन करते वक़्त वह दोस्तों को चुनौती देता है – कि कौन कितना ज़्यादा भोजन कर सकता है ।
[6] मधुमंगल मीठा और पक्वान्न के लिये अपने यज्ञोपवीत, जो एक ब्राह्मण के लिये अत्यज्य है, उसे भी गिरवी रख सकता है ।
[7] सन्त कवि गोविन्द दास श्यामसुन्दर से ऐसे निष्कपट प्रेम करने वाले ब्राह्मण को लाखों बार प्रणाम करते हैं ।