Tamluk
तमलुक का असली नाम ताम्रलिप्त है । यह पूर्व मेदिनीपुर ज़िला में अवस्थित है । यहां श्रीमन्महाप्रभु के प्यारे कीर्तनीय वासुदेव घोष का श्रीपाट है | हावरा - मेचेदा / मेदिनीपुर / पाँशकूड़ा / खड़गपुर - किसी भी लोकल ट्रेन में बैठ जाइये । मेचेदा स्टेशन पे उतरकर बस स्टैंड से श्रीरामपुर / पुरुषाघाट / टेंगरा की बस पकड़िए और १७ कि.मी दूर तमलुक जेलखाना में उतर जाइये । सारे मंदिर आपको जल्द ही दिख जायेंगे ।
श्रीमन्महाप्रभु जब पुरी जा रहे थे, तब पहले आटिसारा छत्रभोग गए थे, और फिर वहाँ से तमलुक आये थे | तारीख था २० फाल्गुन, बंगाब्द ९१६ | उस समय तमलुक तथा मेदिनीपुर ज़िला ओड़िशा के अंतर्गत थे । पार्षदों के साथ महाप्रभु नौका में तमलुक के प्रयाग घाट आये । यहाँ सम्राट युधिष्ठिर द्वारा स्थापित शिवजी के विग्रह है । महाप्रभु ने उनको प्रणाम किया और उस रात तमलुक में रह गए । संगी-साथियों को एक देवस्थान में ठहराकर स्वयं भिक्षा के लिए निकल पड़े । हमारे प्रभु ने सभी भक्तों के भोजन का दायित्व अपने कन्धों पर ले रखी थी, और आज भी ले रखी है । तमलुकवासियों ने प्रभु के इस भिक्षा-ग्रहण को अपना सौभाग्य समझा, और कई पीढियों तक इसकी चर्चा चलती रही । पूरी रात प्रभु ने तमलुक में सारे रहिवासियों और भक्तों को कथा-कीर्तन का आनंद कराया |। इसलिए तमलुक की रज बहुत ही पवित्र है और आज भी पूजनीय है |।
तमलुक के जिस स्थान पर श्री वासुदेव घोष ने भजन किया और अप्रकट हुए, वह स्थान 'नरपोता' नाम से विख्यात हुआ | वासुदेव घोष का श्रीपाट यहीं पर है । वासुदेव घोष महाप्रभु के प्रसिद्ध कीर्तनीया हैं | ।
"गोविन्द माधव वासुदेव तिन भाई,
जा सभार कीर्तने नाचे चैतन्य गोसाईं ।"
-(श्री चैतन्य भागवत)
"वासुदेव गीते करे प्रभुर वर्णने,
काष्ठ-पाषाण द्रवे जाहार श्रवणे ।"
-(श्री चैतन्य चरितामृत)
अर्थ - "गोविन्द, माधव और वासुदेव तीन भाई हैं, जिनके कीर्तन में श्री चैतन्य महाप्रभु सहर्ष नृत्य करते हैं । वासुदेव घोष तो प्रभु के इतना सुन्दर वर्णन करते हैं, कि उन कीर्तनों को श्रवण करने से पत्थर भी विगलित हो जाते हैं ।"
वासुदेव घोष महाप्रभु से इतना प्रेम करते थे कि महाप्रभु के सन्यास ग्रहण के बाद वे नदिया में नहीं रह सके । उनको लगा - प्रभु के बिना नदिया कैसा ? विरह की अग्नि में जलने लगे |। तब उन्होंने तमलुक में आकर श्रीपाट की स्थापना की । कई वर्ष पश्चात जब उनको महाप्रभु के अप्रकट-लीला का समाचार मिला, तब वे आपा खो बैठे | उनको इतना गम्भीर शोक पहुंचा कि उन्होंने प्राण विसर्जन करने का संकल्प किया । उन्होंने मिटटी में एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदा । चारों तरफ भक्तों से कहा की उच्चै:स्वर में महामंत्र संकीर्तन करे । फिर वे और उनकी पत्नी - आँखों पर पट्टी बाँधी और गड्ढे में बैठ गए । उन्होंने भक्तों से अनुरोध किया कि वे मिट्टी डालकर गड्ढे को भर दें । भक्त शोकातुर हो गए । भारी ह्रदय से वे संकीर्तन के साथ साथ गड्ढे को भरने लगे । किन्तु फिर उन्होंने देखा कि वासुदेव घोष समाधिस्थ हो गए हैं । तब भक्तों ने मिट्टी डालना बंद कर दिया । वे हर्षित हो गए यह सोचकर कि अब उनको पता ही नहीं चलेगा कि हम ने मिट्टी डालना बंद कर दिया है । फिर वे हम से जोराजोरी भी नहीं कर सकेंगे । जब रात गभीर हुयी , तब एक चमत्कार हुआ । वासुदेव घोष की आँखों की पट्टी अपने आप खुल गयी । प्रभु ने बालक-वेश में उनको दर्शन दिया । भक्त और भगवान एक दुसरे की बांहों में समां गए ।
"बले, कोथा छिले प्रभु आमारे छाडिया ?
दरिद्र धन पाय जेनो फेलाइया ।
एतो बलि कोले धरि हृदे लागाइला,
प्रभु कहे वर मांगो बलिया बलिला ।
घोष बले यदि मोरे करिबे सुदया,
सदा एइखाने तुमि रबे मोरे लैया ।
एतो शुनि महाप्रभु अंगीकार कोइलो,
सेई दिनाबधि प्रभु सेथाई रहिलो ।"
-(श्यामानंद प्रकाश)
अर्थ - "वासुदेव घोष ने पूछा - प्रभु आप मुझे छोड़कर कहाँ चले गए थे ? अब आपको देखकर मुझे ऐसा लग रहा है जैसे निर्धन को अपना खोया हुआ धन वापस मिल गया है । प्रभु ने कहा - वासुदेव, तुम मुझसे इतना प्रेम करते हो ? मैं तुम से अति प्रसन्न हूँ । तुम्हें जो चाहिए वह मुझसे मांग लो । वासुदेव ने कहा - प्रभु , यदि कुछ देना ही चाहते हो, तो मुझे वचन दो कि तुम मुझे छोड़कर फिर कभी नहीं जाओगे । तुम मेरे साथ यहीं पर रहोगे । यह सुनकर महाप्रभु बड़े खुश हुए । उन्होंने वासुदेव की बात को स्वीकार किया, और उस दिन से वे वहाँ रहने लगे ।"
उस दिन से वासुदेव घोष आनंदित मन से महाप्रभु के श्री विग्रह की सेवा पूजा करने लगे । वासुदेव घोष को जीवित अवस्था में मिट्टी देने की बात हुई, इसलिए इस स्थान का नाम "नरपोता" हो गया । (बँगला में नर = मनुष्य, पोता = गाढ़ना) बाद में जब वासुदेव घोष अप्रकट हुए, तब भक्तों ने उन्हें इसी स्थान में समाधिस्थ किया । उस स्थान पर एक बकुल वृक्ष शोभायमान है । यह वृक्ष इस स्थान की महिमा बढ़ा रहा है, और इस प्रेम-लीला का साक्षी है ।
वासुदेव घोष के अप्रकट होने के पश्चात मुसलमानों के अत्याचार के कारण, ब्राह्मण पुजारी श्रीविग्रह को लेकर अपने गाँव मिर्ज़ापुर ले आये । वहाँ उन्होंने विग्रह को एक मोटे गलीचे में लपेटकर छिपा दिया । एक दिन महाप्रभु ने श्यामानंद प्रभु को स्वप्नादेश दिया कि उनका वहां से उद्धार करें, और वापिस उनकी सेवा-पूजा शुरू करें । श्यामानंद प्रभु स्वप्नादेश पाकर आनंदित मन से तभी के तभी वैष्णव संगी साथियों को लेकर महा-संकीर्तन करते करते तमलुक लिए निकल पड़े । यहाँ पहुंचकर वे राजा के दुर्गा-मंडप में बैठ गए । अब हुआ यूँ कि राजा चण्ड विद्याधर नामक एक मायावादी सन्यासी का अनुयायी था । वह सन्यासी वैष्णव विद्वेषी था । इसलिये राजा ने परिवार सहित श्यामानन्द प्रभु से मिलने आना तो दूर, उन्हें वहां से चले जाने को कह दिया । श्यामानन्द प्रभु दैन्य पूर्वक वहां से चल दिये । उनके चले जाने के बाद, राजा के निर्देशानुसार लोग श्यामानन्द प्रभु जहां बैठे थे, उस स्थान के शुद्धिकरण हेतु वहां की मिट्टी खोद कर फेंकने लगे । किन्तु जितना भी खोदते, मिट्टी फिर से भर जाती । इस अलौकिक घटना को देखकर राजा के मन में श्यामानन्द प्रभु का आनुगत्य स्वीकारने का मन हुआ । उन्होंने सन्यासी को विदाई दी तथा श्यामानन्द प्रभु को लौटा लाये । उन्होंने महा-संकीर्तन का आयोजन किया तथा पूजारी के घर से विग्रह को ले आये । आज भी मन्दिर में उसी विग्रह की पूजा हो रही है । प्रत्येक वर्ष भक्तगण वैशाखी शुक्ला त्रयोदशी को वासुदेव घोष के तिरोभाव का उत्सव बड़े धूमधाम से मनाते हैं ।
तमलुक मे श्यामचाँद का विग्रह भी है । इनकी प्रतिष्ठा माधवी दासी ने की थी । महन्त श्री चरण दास सेवित एक जगन्नाथ देव की मूर्ति है । प्रवेश पथ पर रासमंच मन्दिर बहुत सुन्दर और दर्शनीय है । यहाँ आठ जन महन्तों की समाधि है । पास में ताम्रध्वज राजा का राजपुर है । एक समय था जब राजपुर में कितना कोलाहल था, और आज केवल ध्वंस-स्तुप है ! राज-मन्दिर में राधारमण, राधा-कृष्ण तथा राधा-माधव के सुन्दर दर्शनीय विग्रह हैं । इसके पास ही राम-सीता के मन्दिर और जगन्नाथ के मन्दिर हैं । यहाँ द्वापर युग के साक्षी श्रीजिष्णुहरि मन्दिर है । इनकी कथा इस प्रकार है –
ताम्रध्वज राजा ने महाभारत में अश्वमेध यज्ञ के अश्व को पकड़ लिया था । राजा बहुत बड़े श्रीकृष्ण-प्रेमी थे । इसलिये युद्ध में अर्जुन परास्त हो गये । गोविन्द ने आकर अर्जुन को बचाया । राजा की भक्ति से गोविन्द आज भी चतुर्भुज रूप में सेवा ग्रहण कर रहे हैं । दाईं तरफ श्रीकृष्ण और बाईं तरफ जिष्णु अर्थात अर्जुन । दोनों चतुर्भुज हैं। पूजारी ने कारण बताया, “ क्युंकि श्रीकृष्ण के विग्रह को कभी कभी बाहर ले जाना पड़ता है ।"
भगवान का मुख दक्षिण की तरफ है, क्युंकि राजा का यही निर्देश है । राजा की ऐसी इच्छा थी कि वे राजपुर से भगवान का दर्शन कर सकें ।
निकट चक्रेश्वर शिवजी हैं । कुन्तीमाता इनकी सेवा करतीं थीं । महाप्रभु ने इनका ही दर्शन किया था । इसके पास "वर्गभीमा-माताजी" का मन्दिर है । ५१ शक्तिपीठ के अन्यतम । यहां माताजी की बाईं एड़ी गिरी थी । वर्गभीमा माता के कई चमत्कार हैं । एक मछुआरिन प्रतिदिन ताम्रध्वज राजबाड़ी मे ढेर सारी जीवित मछलियाँ लाकर देती थी । उसका नाम था भीमा । उस समय मयुरवंशीय राजा ताम्रध्वज शासक थे । इतनी सारी जीवित मछलियाँ वह प्रतिदिन कैसे लाकर देती है, खोजने पर उनको ज्ञात हुआ कि जंगल में एक रहस्यमय कुण्ड है । वह अमृत-कुण्ड है । मछुआरिन राजबाड़ी मे प्रवेश करने के ठीक पहले उस कुण्ड के जल को मृत पर छिड़काकर फिर से जीवित कर देती थी । इस अलौकिक घटना को सुनकर राजा ने स्वयं अपनी आँखों से इस कुण्ड को देखना चाहा । किन्तु उन्हें वह सौभाग्य नहीं मिला । उनके जंगल मे प्रवेश करते ही, वह कुण्ड अदृश्य हो गया । इसके बदले उनको एक वेदी दिखी, जिसपर एक देवी-मूर्ति थी । चुंकि यह स्थान भीमा के अंचल में था, इसलिये देवी का नाम वर्गभीमा रखा गया । आज भी दुर्गा पूजा के प्रारम्भ में राजबाड़ी से एक शाणित तलवार देवी को भेंट स्वरूप दिया जाता है ।
एक और घटना बताती हूं । उस समय ताम्रलिप्त की बन्दरगाह सुप्रसिद्ध थी । बड़े बड़े जलपोतों का आना जाना रहता था । देश-विदेश के साथ वाणिज्य सम्पर्क था । एकदिन धनपति नाम का एक व्यापारी जलपथ से आकर ताम्रलिप्त के बन्दरगाह में उतरे । उनको किसी तरह पता चला था कि नगर की छोर में एक कुण्ड है, जिसमें पीतल डूबोने से सोना हो जाता है । धनपति ने इस मौके का लाभ उठाया । इसके बाद उसने श्रीलंका से जो धन कमाया था, उससे वर्गभीमा माता के लिये इस मन्दिर का निर्माण कराया ।
जगन्नाथ मन्दिर के विपरीत दिशा में 'नेता' नामक धोबिन का सिलबट्टा है । बेहुला-लखीन्दर की प्रेम-गाथा बंगाल की संस्कृति के साथ ओतप्रोत रूप से बँधी है । बेहुला के प्रेम ने लखीन्दर को मृत अवस्था से जीवित किया था । देवी समान बेहुला ने इसी सिलबट्टे पर कपड़े धोये थे । इसलिये इस सिलबट्टे को एक छोटे से मन्दिर में रखकर आज भी इसकी पूजा की जाती है ।
सच, तमलुक के कण कण में दिव्यता बसती है, इसमें कोई सन्देह नहीं । तमलुक की रज को बारम्बार प्रणाम ।