|| श्री श्री वृन्दावनेश्वर्यै नमः ॥
वृन्दावनेश्वरी वयो गुण रूप लीला ,
सौभाग्य केलि करुणा जलधे’वधेहि ।
दासी भवानि सुखयानि सदा सकांतां ,
त्वां आलिभिः परिर्वृतां इदमेव याचे ॥
१
हाय हाय मेरे वृन्दावनेश्वरी , तुम्हारे वय, रूप , गुण और लीला का क्या बखान करूँ !! तुम तो सौभाग्य, प्रेम केली और करुणा का महा सागर हो । मै तुम्हारे चरणों में कुछ विनती करती हूँ ; कृपा कर तुम मेरी तरफ देखो । मैं तुम्हारे प्रियतम के संग युगल चरणों की सेवा करना चाहती हूँ । मुझे सिर्फ इतना वरदान दे दो, हे प्राणेश्वरी । मैं सेवा कर के सुख देना चाहती हूँ । सिर्फ यही मेरे दिल की तमन्ना है । मेरे दिल में यह आस कब उठेगी कि मैं तुम्हारे दुःख मे दुःखी हूँ और तुम्हारे सुख मे सुखी ? ये बड़ी ही विचित्र आशा है और ऐसा लगता है जैसे कि कोई बौना चांद को पकड़ना चाहता हो । पर तुम तो करुणा का महा सागर हो , इसलिए ऐसी आशा करने की हिम्मत कर रही हूँ। हे मेरे हेम गौरी, दीन कृष्णदास की यह आशा पूरण करो ।
२
हे वृन्दावनेश्वरी, रात्री की अंतिम घड़ी है । मेरे धनी , तुम निकुंज भवन में रत्न पलंग पर रस आलस के मारे श्याम नागर की आग़ोश में सोई हो । नागर के दक्षिण जांघ पर तुम्हारा रातुल चरण है । दोनों का हृदय एक दूसरे पर है । और तुम एक दूसरे की बाहों में सोये हो । चहरे को चहरा ढंक रहा है । हाय हाय सुवदनी ! कब मैं इस सुन्दर दृश्य को देखूँगी ? निकुन्ज में छोटी सी खिड़की होगी । उसमें लताओं की जाली लगी होगी । और इन जालियों में मैं तुम्हारे सखियों के संग ये सुन्दर दृश्य कब देखूँगी ?
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