जय शची-नन्दन भुवन आनन्द !
नवद्वीप में उछले नव-रस-कन्द !
गो-क्षूर धूल देखकर, सुन वेणू-निसान,
“अपरूप श्याम मधुर-मधुर-अधर मृदु मुरली-गान”
ऐसा कहकर भाव-विवश गौर, कहे गदगद बात,
“श्याम सुनागर वन से आवत सब सहचरों के साथ ।
मेरे तन मन नयन को पड़े चैन, सफल हुआ देह”।
राधामोहन कहे, “कैसा अचरज ! यही तो है वे[1] ।”
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