नवद्वीप – १


नवद्वीप

श्रीवास प्रांगण मध्यस्थः स्वापि भक्त गणैः सः

कदा पश्यामि गौरांग तव क्रीडित माधुरी |

निशांते गौर चंद्रस्य शयनाञ्च निजालये

प्रातः काल कृतोत्थान स्नानं तत्भोजनादिकम ।।

 

हरि हरि, कब वह शुभ दिन आएगा जब मैं अपने प्यारे प्रभु श्री गौरसुन्दर को अपने भक्तों के संग बड़े आनंद के साथ नदीया विहार करते हुए देखूँगा ? मेरे प्रभु सुरधुनी अर्थात गंगाजी के किनारे कीर्तन विलास मे मगन होकर नृत्य कर रहे होंगे । क्या मैं कभी भी वह दृश्य देखकर अपनी इन प्यासी आँखों की प्यास बुझा सकूँगा ? कब मेरे दिल की यह तमन्ना पूरी होगी ?

 

प्रभु श्रीवास भवन में अपने प्यारे भक्तों के साथ सुंदर भंगिम में बैठे होंगे । उनकी दायीं तरफ श्री नित्यानंद होंगे, जो उनके माथे पर छ्त्री धरेंगे और पंडित गदाधर उनकी बायीं तरफ बैठे हुए होंगे । काश ! कोई मुझे उस वक्त वहां ले जाता और मैं जी भरकर उनके मुख चंद्र को निहार सकता ! मेरे तन पुलक से भर गया होता और मैं प्रेम आनंद में डूब गया होता । और फिर ममता मयी शचीमाता मुझे बुलाकर अपने घर ले जातीं और मुझे भोजन करातीं । कवि रामानंद कह रहे हैं कि कब वह आनंदमय दिन आयेगा और मैं अपने दोनों नयनों को सफल करूँगा ?

One thought on “नवद्वीप – १

  1. Radhe Radhe! Truly, eyes will become successful only when one will see Gora!!! Sweet!

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