Denur
देनुड़ वर्धमान जिला में पड़ता है | यहां दीनेश्वर शिवजी का मन्दिर है | दीनेश्वर से देनुड़ नाम पडा है | आप यहां दो तरीके से जा सकते हैं | आप मेमारी रेल स्टेशन से बस मे बैठिये और पुटशुड़ीमे उतरिये | आपको को २ से २-३० घण्टे लगेंगे | अथवा आप नवद्वीप - वर्धमान बस में बैठ जाइये, और कुसुमग्राममे उतरिये | वहां से बस या टेम्पो पकड़कर पुटशुड़ी आ जाइये | पुटशुड़ी से देनुड़ 3 किमी की दूरी पर है | वहां आप संकीर्तन करते हुयेचलके जा सकते हैं, जैसे हम गये थे, या फ़िर बस / ऑटो ले सकते हैं |
देनुड़ वह पुण्य स्थान है, जहां व्यासदेव के अवतार श्री वृन्दावन दास ठाकुर ने चैतन्य भागवत की रचना की थी | श्री मन्दिर अतीव रम्य स्थान है | श्री वृन्दावन दास ठाकुर द्वारा सेवितनिताई-गौर इतने मन-मोहक और मधुर हैं कि आपके पलक नहीं झपकेंगे | यहां पत्थर के फ़लक पर लिखा है –
"अन्तर्यामी श्री नित्यानन्द प्रभु हंसकर बोले - हे वृन्दावन दास, तुम प्रभु के बारे में जो कुछ जानते हो, वह लिखो | यद्यपि मैं अल्प-ज्ञानी हूं, नित्यानन्द प्रभु की आज्ञा को शिरोधार्य करके। उनके चरणों को स्मरण करते हुए, मैंने इस ग्रन्थ को लिखा |"
इसके अलावा मन्दिर में श्री श्री राधा-श्याम और जगन्नाथ के विग्रह भी शोभित हैं | थोड़ी दूरी पर धरा नाम की एक पुष्करिणी है | ४५०वर्ष पूर्व इसके चारों तरफ़ आम का बगीचा हुआ करता था | और भी कई वृक्ष थे | इस तरह यह स्थान बड़ा ही मनोरम था | नित्यानन्द प्रभुने अपने वैष्णव साथियों के साथ यहां पुलिन-भोजन मनाया था | किन्तु बड़े दुख के साथ बता रही हूं, कि, अब यहां न कोई वृक्ष है न बगीचा |
एकबार ऐसे ही भोजन के बाद निताईचाँद ने वृन्दावन दास जी से मुखवास मांगा | वृन्दावन दास जी के पास कोई मुखवास न था | वे जाकर दुकान से हरितकी ले आए | यदि अगले दिन भी प्रभु ने मुखवास मांगा तो ? यह सोचकर दो हरितकी ले आए | प्रभु को एक दिया और एक रख दिया | दुसरे दिन प्रभु ने फ़िर से मुखवास मांगा | तब वृन्दावस दास जी झट से हरितकी दे दिया | असल में प्रभु उनकी परीक्षा ले रहे थे | वृन्दावन दास जी की बड़ी इच्छा थी, कि वे सब कुछ छोड़ छाड़कर वैरागी वेष में नित्यानन्द प्रभु के साथ पुरी जाकर वहीं बस जाए | निताईचाँद ने कहा - "वृन्दावन दास, मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था | इस घटना ने साबित कर दिया कि तुम संचयी प्रवृत्ति के हो | तुम कभी सच्चे वैरागी नहीं बन सकते | वैराग लेकर यदि कोई जमा-पून्जी करे, वह गलत है | बेहतर होगा कि तुम गृहस्थ बनकर भजन करो | ऐसा करने से कपटता से बचे रहोगे |" ऐसा कहकर प्रभु ने उस हरितकी को मिट्टी में गाढ़ दिया | उससे हरितकी वृक्ष उपजा, जो अभी भी है | उस स्थान को हरितकी-तला कहते हैं |
यहाँ आप को निताईचाँद के पादपीठ का दर्शन होगा | पूजा-मन्दिरका निर्माण 1366 बंग़ाब्द, आषाढ़ के महीने में हुआ | पास में एक वटवृक्ष है |
श्री रामहरि महन्त, जो परम वैष्णव थे, उन्होंने देखा, कि, जब प्रभु पुरी चले गये, तब वृन्दावन दास ठाकुर विरह में रोते हुए धूल में लोटपोट खाने लगे | विदा के ठीक पहले नित्यानंद प्रभु ने रोते बिलखते वृन्दावन दास को बाहों में भरके कहा था –
"प्रभुरे देखिबे हेथा, ना होइओ चञ्चल,
एथा रहि करो सब् जीबेर मङ्गल |
प्रभुर बिग्रह इह करह स्थापन,
बिग्रहे पाबे सदा प्रभुर दरशन |"
अर्थ : "हे वृन्दावन दास ! तुम परेशान मत होना | मैं तुम्हें वर देता हूं, कि तुम्हें सर्वत्र महाप्रभु का दर्शन होगा | तुम यहां महाप्रभु के विग्रह की स्थापना करो | विग्रह में तुम्हें प्रभु क दर्शन मिलेगा | तुम यहीं पर रहकर भजन तथा सेवा करो | इस तरह तुम जीवों का कल्याण करोगे |"
उसके बाद श्री रामहरि महन्त ने वृन्दावन दास को स्वस्थ किया, उनका शिष्यत्व ग्रहन किया, और उनकी सेवा में लग गये |
यहां आपको श्री वृन्दावन दास ठाकुर द्वारा विरचित ग्रन्थ श्री चैतन्य भागवत का दर्शन होगा | साथ ही साथ एक और ग्रन्थ है - श्री गदाधर पण्डित द्वारा लिखित श्रीमद भागवतम् के दशम स्कन्ध और उसके नीचे महाप्रभु के अपनी लिखावट में कुछ टिप्पणी | महाप्रभु की हस्तलिपि साक्षात मुक्ताक्षर हैं, देवदुर्लभ है, किन्तु हम उसे पढ़ नहीं पाए |
थोड़ी दूरी पर प्रभु के सन्यास गुरु श्री केशव भारती का जन्मस्थान है | वहां आपको राधा-कृष्ण, गोपाल, जगन्नाथ, १५ शालग्राम, देवी मूर्ति, और केशव भारती की मूर्ति का दर्शन होगा |
कलियुग के व्यास-अवतार श्री वृन्दावन दास ठाकुर के जन्मस्थान को हमारा प्रणाम है |