असली मोह तो स्वामिनीजु को ही होता है – भक्तों को नहीं

 

सखी-संग चलीं राह पर राई बिनोदिनी,

विषाद से व्याकूल दिल, कहे कुछ वाणी ।

 

कृष्ण-नाम, यश, गुण और प्रेम-आलापन,

रह रह कर रुक जाये, विभोर होवे मन ।

 

दसों दिक कृष्णमय देखें दो नयन,

कुटील प्रेम का दिल में हुआ जागरण ।

 

बोलना चाहे कुछ, बोले कुछ और,

ऐसे स्वामिनीजु पर माधव हो निछावर ।

 

देखकर हेम ज्योति तमाल को है घेरे,

जल भरके आंखों में तिरछी नजर फेरे ।

 

सखी को बुलाकर कहे चन्द्रमुखी, यह क्या !

कानू से विलास करे कोई राजा की बिटिया ।

 

मुझे देखकर ढीट्नी को ना लागे कोई डर,

परपुरुष से इश्क़ लड़ाये, न छोड़े पल भर !

 

दूसरों की बोली सुन मुझ भोली को त्यजे,

ऐसे बेवकूफ की कोई ज़रूरत नहीं मुझे !

 

 “धनी, तुम अज्ञान”, कहे ”कान्हाप्रिया” हंसकर,

तमाल पर लता डोले, तुम सोचो कुछ और ।‘’