माता को विदा कर चले हरि गोठ की ओर
पुकारे, ‘ सुनो भैया ’!
न जायेंगे मैदान आज चलो चलें गिरिराज
हांककर ले चलो गैया ।
गोविन्द कुंड का जल अति मनोहर सुशीतल
वहां घास है सुकोमल,
वहां गैया को छोड़कर हम खेलेंगे जाकर
देखेंगे सुहाना गिरितल ।‘’
सुनकर दाऊ सुख से शिंगा बजाया मुख से
पुकारा, ‘’धवली ! सांवली !
पिशंगी ! मणिकास्तनी ! ओ मेरी गुणमणि !!”
सुनकर गैया हूईं प्रेम-बावली ।
कोई नाचे कोई गाये कोई पीछे पीछे धाये[1],
बजे घुंगरू – नुपूर की ध्वनि,
तरुण तर्बक जितने हुए वे दीवाने कितने
सुनकर वह मधुर ध्वनि ।
ऊर्ध्व कान ऊर्ध्व पूंछरे आंखें घूमाकर बछड़े
गये गिरि गोवर्धन भागकर,
राम-दामोदर के संग सब शिशु गये रंग
फिराया गौओं को एक-एक कर ।
राम कहे, ‘’ओ भैया, यहां चरने दो गैया,
आओ सब मिलकर खेलें’’ ।
घास पे छोड़कर धेनू खेल रहे राम-कानू,
सभी राखाल जा मिले ।
खेल रहे मस्ती का खेला राखालों का लगा मेला
दोनों भाइओं को घेरकर ।
जोश में राम-कानाई ने दो गुट है बनाई
और खेलने लगे पकड़-पकड़ ।
कोई बने हाथी-घोड़े कोई वृष जैसा दौड़े
कोई अंग-वस्त्र उड़ाये,
कोई कोयल का स्वर बोले कुहू कुहू कर,
कोई भौंरे का गुंजन करये ।
कोई धरती पे हाथ रखकर पैर सर पर उठाकर
नृत्य करे मोर जैसे,
धक्का मारे दूसरे को और हिलाये अंग को
कोई घूमे नर्तक जैसे ।
गेंद को उछालकर फेंके आस्मान पर
बलाई उनको पकड़े,
कोई पेड़ पर चढ़े फिर नीचे कूद पड़े,
कोई किसीके पीछे दौड़े ।
कोइ किसीका नकल करे कोई घूम घूमकर नाचे,
कानू बुलाये ‘ दाऊ भैया ’ !!
वह जो मुझे मारकर जा रहा भागकर
उसे तुम मत छोड़ना भैया !!’’
गेंद लेकर उसको कान्हा उलटकर मार दीन्हा
देखे दाऊ खड़े होकर ।
वै्ष्णव दास करे दरशन चित्त है बड़ा प्रसन्न
मुस्काये लीला देखकर ।