प्रेम-वैचित्ति

 

भ्रमत गहन वन में जुगल-किशोर,

संग सखीगण आनन्द-विभोर ।

 

एक सखी कहे, “देखो देखो सखियन,

कैसे एक दूजे को देखें, अपलक अंखियन !’’

 

पेड़ हैं पुलकित, खुशबू[1] पाकर भ्रमर-गण

उनकी ओर[2] भागे त्यज फूलों का वन ।

 

दोनों बैठे थे माधवी कुंज,

राई मुख-कमल पे गिरे अलि-पुंज[3]

 

लीला-कमल से कानू लगे उन्हें मारने,

‘’मधुसूदन[4], जाओ !’’ लगे वे बोलने ।

 

यह सुन राई हुई विरह -दीवानी,

कहे राधा-मोहन, ‘’कैसी अनुरागिनी !”

 

राई की ऐसी दशा देख दुखी हुये नागर,

राई को लिये गोदी में नज़दीक आकर ।

 

बहुत जतन से उन्होंने चेतन कराया,

मधुर वचनों से उन्हें ढारस बंधाया ।

 

 “ सुन्दरी, कहो यह विड़म्बना ?

निरुपम प्रेम में क्युं यह वेदना ?

 

प्रेम है अमृत रस, माधुरी अपार,

फिर भी यह दुख ! शंका हमार ।

 

हम तुम्हारे सामने बैठकर, कर रहे आस,

 फिर भी हमें दूर सोचकर कर रही निराश !

 

कितना विलाप कर रही हो तुम !

भयंकर विरह में मूझे कर रही हो गुम !”

 

यह सुनकर राधा गोरी,

लाज से हो गयी भोरी  ।

 

देखकर राधामोहन हुआ आनन्द-मगन,

श्याम ने लिया गोदी में[5] होकर प्रसन्न ।

 

 

राधा-माधव की जोड़ी लगे अतुलन,

देखकर दिल होवे आनन्द-मगन ।

 

वृन्दा-रचित विपिन में करें विलास,

दरशन को सखियां लगाये आस ।

 

ललितानन्दद कुंज में दोनों बैठे जाकर,

सखियां आकर बैठ गयीं उन्हें घेरकर ।

 

वहां से फिर गये मदन-सुखदा में,

सखी संग मिलकर विहरे  सुख में ।

 

फिर चित्रा-सुखद, वहां से चम्पकलता-कुंज,

सुदेवी, रंगदेवी के कुंज में हुआ आनन्द का पुंज[6]

 

फिर इन्दु-सुखद कुंज में कितनी मस्ती हुई,

तुंगविद्या के कुंज में फिर सखियां लेकर गयीं ।

 

घूमे सभी कुंज में और देखे छः ऋतुओं की शोभा,

उद्धव गाये रसगीत, “ कुसुम-सुषमा है मनलोभा” ।



[1] युगल सरकार की खुशबू

[2] युगल सरकार की ओर

[3] मधुमक्खियों का झूंड

[4] मधुमक्खी

[5] श्यामसुन्दर ने राधाजी को गोदी में लिया

[6] ढेर सारा आनन्