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तथा राग
प्राणप्यारी राधारानी के प्रति श्यामसुन्दर की कपटता भरी शिकायतें सुनकर चित्रा सखी को बड़ा मज़ा आया । उसने कन्हैया जी की बातों पर अपनी तरफ से व्यंग्य-रस का रंग चढ़ाया । उसने कहा – “हां, हां, सच ही तो है ! सखी ! यह तूने क्या कर दिया ! तूने अपने कठोर देह से इतने कोमल श्याम-अंग को इस तरह की हा्नि पहुंचायी !!”
दलित-नलिन-सम[1] मलिन वदन-छवि[2]
होंठ किये खण्ड-विखण्ड[3],
मिटा दिया उज्वल चन्दन-काजल,
पीस डाला मरकत-गण्ड[4] ।
शिरीष-कुसुम सम श्याम-अंग,
और अति कठोर तेरा तन,
ऐ सखी ! पर्वत समान कुच से,
तूने किया हृदय-चक्र मर्दन !
नील-कमल सम कोमल वक्ष-स्थल,
फाड़ा नख-शर से, पहुंचायी हानि,
व्यथा के मारे मूंद ली लोचन,
फिर भी बोले प्रेम की बानी[5] !
मन्मथ-भूपती-भय[6] नहीं तूझे,
सखियों का सम्मान किया चूर !
चित्रा-वचन सुन धनी लजाए,
देख बलराम हुआ सुख-विभोर ।
[1] पीसा हुआ कमल के जैसा
[2] श्याम का चेहरा बिल्कुल पीसा हुआ कमल की तस्वीर जैसा लग रहा था ।
[3] चित्रा का कहना था – किशोरी जु ने उनके होंठ के टुकड़े टुकड़े कर दिये थे ।
[4] पन्ना के समान चमकने वाले गाल
[5] अहा ! श्यामसुन्दर तुझसे इतना प्यार करते हैं कि, तूने इतनी व्यथा पहुंचायी, फिर भी वे प्रेम जता रहे हैं ।
[6] क्या तूझे महाराज कामदेव का डर नहीं ? तात्पर्य है, कि, जो तुझसे इतना प्रेम करता हो, उसे इस तरह सताने से, प्रेम का राजा क्रोधित हो जायेंगे ।