नीलमणि चले वन, करने को गौ-चारण

जब वन जाते हैं कान्हा           

और लगाते हैं वेणू का निशाना,

 

                       मानो ब्रजजनों का प्राण-धन                     

निकलकर जा रहा है वन ।

 

              क्य कहूं ब्रजजन का सनेह                

है वह अगाध अथेह ।

 

नर-नारी और बाल-वृद्ध

चित्र या पुतली जैसे रूद्ध ।

 

सबके नयनों से बहे लोर,

गमन के विरह में हैं भोर ।

 

सखी-संग देख रही राई,

आकुल व्याकुल हो जाई ।

 

पुलक से भरा अंग सब,

थरथर कांपे पग भी अब ।

 

राधारानी सोच रही

दिल में आग जल रही ,

 

‘’कहीं चन्द्रावली की सखियां

न पकड़ ले जाये कन्हैया ।‘’

 

दूर दूर पे खड़ी

देख रहीं ब्रजनारी ।

 

जब मुरारि चले वन

धरती पे गिरे तन ।

 

सब सहचरी मिलकर

लौट गयीं अपने घर ।

 

विरह का पयोनिधि माहि

डूब गया वैष्णव ताहि ।



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