( मां यशोदा और ब्रजवासियों का दुख) –
दिल में जले अंगारा आंखों से बहे धारा
दुख से फट जाए,
जो है बिल्कुल अनजान वह चला है वन
मैया कैसे सह पाये ?
(मैया कानू से कहती है ) –
‘’ओ मेरा लाड़ला दुलारा कानु !
क्या घर में नहीं धन? क्यों जा रहे हो वन ?
राखालों को ले जाने दो धेनू ।‘’
(फिर मैया दूसरे बच्चों को मन ही मन सम्बोधित करके कहती है ) –
क्या इसके आगे पीछे नहीं हम ? हापूती के पूत हो तुम
बना रहे हो मुझे अन्धी,
मेरा दूध का बच्चा कानु वन को ले जायेगा धेनू !
कैसे रहूं मैं घर में बन्दी ?
उसका मक्खन जैसा तन धूप में मिट जायेगा उसी छन
इस डर से प्राण में होवे कम्प,
बाहर पारा है आग सम रवि का प्रखर विषम
कैसे सहेगा यह प्रचंड तप ?
राह में हैं कांटे बड़े बड़े जैसे मिट्टी में शेल हों गढ़े,
सुना है वे आकर गिरते हैं अंग पर !
कुसुम-कोमल तेरे क़दम हों जैसे कोई मक्खन
कैसे वे सहेंगे वन के कंकड़-पत्थर ?
माता की प्यारी वाणी सुनकर गोकुलमणि
कितना मां को समझाये,
कहे, ‘’दिल छोटा न कर, वन में है कैसा डर ?
मेरे साथ है शेखर राय !’’