श्री श्री राधा-कृष्ण की राज-सभा, भोजन और विश्राम –

 

अटरिया पे उठ कर देखे कानू,

मन्दिर के छत पर धनी, पुलकित तनू ।

 

दूर से दोनों एक दूजे को देखें,

अवश हुये तन, कैसे जिया रखें ?

 

कानू पूछे, ‘‘ क्या उदय हुआ है  चन्दा ?

या मेरी आंखों का कोई इश्क़-फन्दा ?”

 

दोनों एक दूजे को देखें ऐसे,

नयन-चकोर अमृत पी रहें हो जैसे ।

 

दोनों तन कांपे, मुख पर हास,

दोनों के कण्ठ में गदगद भाष ।

 

सखी पूछे, “क्या देख रही, सुवदनी राई ?”

धनी कहे, “नन्द-महल की देखूं बढ़ाई ।”

 

सखी बोली, “चान्द-ध्वजा लहराये,

उसीको तुम्हारा मन कानू समझाये ”।

 

धनी बोलीं, “जैसे ध्वजा पे शशि सोहे,

देखो वह देख रहा है मोहे ”।

 

ऐसा कहके दोनों दोनों को देखकर,

जतन से मन्दिर में बैठे जाकर ।

 

समय जानकर कान्हाप्रिया कहत है,

“नागर, राज-सभा में सभी चलत हैं ”।

 

७५

 

मन्दिर के बाहर सुन्दर स्थान,

वहां पर सजाये हैं अति अनुपाम ।

 

विचित्र सिंहासन पर रंगीन वसन

मोतिओं की लरियां लगे मन-भावन ।

 

गोप, ग्वाले, और सभाजन,

ब्रजराज को घेरकर बैठे द्विजगण ।

 

कोई कोई गावत, कोई बजावत,

कोई ताल धरकर फिरत नाचत ।

 

दीप जगमगाये, उजियारा पसरे,

अगुरु-चन्दन के खुशबू हवा में बिखरे ।

 

कनक सम्पूट पर ताम्बूल धरई,

चंवर से कोई बीजन करई ।

 

गोविन्द दास कहे, “ अपरूप साज,

बीच में बिराजे ब्रज-रस-राज ।“

 

७६

 

उपानन्द, अभिनन्द नन्द के दायें,

सनन्द, नन्दन, दोनों बैठे हैं बांये ।

 

सामने सुभद्र बैठ रचे मन्त्रण,

विद्या में पारंगत बैठे द्विजगण ।

 

सभी बुज़ुर्ग गोपों का है कृष्ण-अनुराग,

सबके सिर पे सोहे मनोहर पाग ।

 

सौ सौ दीपधर[2] जले महादीप,

दूर, दायें, बायें, आसन-समीप ।

 

जब राम-कानू आये वहां पर,

महा कलकल-ध्वनि उठी वहां पर ।

 

नन्द ने गोदी में लिये राम-कानू,

देखकर माधव हुआ पुलकित तनु ।

 

७७

 

अपरूप मोहन श्याम,

किशोर वय अनुपाम ।

 

सभा बीच बैठे दो भाई,

सभी जनों की चित्ति चुराई ।

 

देखते ही देखते और अधिक प्रकाश,

चान्द-वदन पर मधुरिम हास ।

 

नयन युगल नील कमल समान,

देखते ही युवतियां लुटाये परान[3]

 

देखकर तिलक और भाव-विभंग,

हाथ में फूल-धनू लिये मुरछे[4] अनंग ।

 

रोज रोज ऐसे करत विलास,

एक मुह से कैसे गाये गोविन्द दास ?

 

७८

 

गुणीजन गाये गान          लेकर विविध तान

        वाद्य बजाये अति मनोहर,

नाचे नर्तक ऐसे              खञ्जन भी हार जाये, वैसे

        देखकर सबके हर्षित अन्तर ।

 

गीत, वाद्य, नृत्य ऐसे              सब भासे आनन्द में जैसे

                बारबार करें आस्वादन,

राजा ने दिया बहुत धन           गुणीजन हुये प्रसन्न

                धन दिये और सभी जन ।

 

एक पेट-मोटा भाट[5]               आकर दिखाये नाट

                सब बजाये ताल,

विदूषक और आकर                 उसके साथ मिलकर

                दिखाये विनोद खेल ।

 

राम-कानू देखकर                   लोटपोट हुये हंसकर

                उनके बीच फेंके कुछ धन,

भाट करे खींचातानी               एक-दूसरे को परेशानी

                देखकर सभी को बड़ी हंसी आयी ।

इतने में रक्तक आकर               नन्द के कान में फुसफुसाकर

                कहा, “मां ने भेजा लेने राम-कान्हाई” ।

 

इतनी सी सुनकर           नन्द उठे व्यस्त होकर

                बुलाकर भाटों को दिया धन,

देख सुन नृत्य गीत          आनन्द में मगन चित्त

                घर लौटे ब्रजवासी होके प्रसन्न ।

 

घर आकर राम-दामोदर                   बैठे आसन पर

                दोनों खुशी से हैं झूम रहे,

दोनों दीख रहे प्यारे                मैया-बापू के दुलारे,

                शेखर दोनों के गुण गाहे ।

 

७९

 

सेवा करें सेवक गण        आनन्द में आकुल मन

                स्नेह-सुख में भूले अपने को,

राम-दामोदर बिनु                  और कछु नाही जनू,

                सेवा-सुख में रहें मगन वो ।

 

आहिस्ता उतारे आभरण          दोनोंको पहिनाये  वसन

                जो भोजन के लिये हों उचित,

चरण धुलाये जल से                पोंछे पतले चीर से,

                ले गये भोजन-भवन के भित ।

 

रक्तक करके जतन                  बिछाये अनेक आसन

                झारी में रखे सुशीतल वारि ;

राम-दामोदर आकर                आसन पे बैठकर

                पिताजी को बुलाये बारि बारि  ।       

 

नन्द उपानन्द आदि आकर         भोजन के लिये बैठे आसन पर

                राम-कानू बैठे दायें बायें,

दूध-भात और पूरियां तलकर             जशोदा लायीं थाली भरकर

                खीर-पूरी भोजन कराये ।

 

दोनों के भोजन देखें                शीतल हुईं मां की आंखें

                पायें वे महासुख,

“दोनों बालक हमारे                हैं कितने प्यारे प्यारे”

                दूर हुये सब दुख ।

 

मैया-बापू का प्रेम-रस             देखकर पाये सभी रस[6]

                बार-बार उठना चाहें,

पर मैया करे जोरी          कहे, “कसम मोरी”

                फिर से थाली भर देवें ।

               

अलस से भरे तनू           थक गये राम-कानू[7]

                देखकर मैया हुई दुखी,

आकर सेवक गण            कराये आचमन

                अब दोनों हुये सुखी ।

 

नीन्द के मारे हलधर               लौटे अपने घर

                कन्हाई को भेजा करने शयन,

नन्दनन्दन-कान             चबाये  खुश्बूदार पान

                सेवक करें चरण-संवाहन ।

 

नींद में हुये अचेतन         यह देख सेवक गण

                अपने अपने कमरे में गये,

शेखर समय जानकर               धनी से कहे जाकर,

                “अब भोजन का करो उपाय” ।

 

८०

 

जटीला कहे बहू से,        

“बेटी, भोजन करो जल्दी से ;

 

आयान का हो गया भोजन,

दुर्मद, कुटीला भी गये शयन ।

 

मैं हूं अन्धी बुढ़िया,

आंखों में भरी है नींदिया

 

तू है मेरे नयनों का तारा,

 खाने  के लिये वक़्त नहीं तेरा ?

 

अब बैठ यहां, कर भोजन,

तुझे देख तृप्त होवें मेरे नयन” ।

 

जटीला बहू को दें जतन से,

थाली पर खीर-पूरी परोसे ।

 

बिनती करे राई,

“तुम शयन करो माई ।

 

जो भी दिल को भाये,

मैं खाऊंगी निश्चय ।

कमरे में ले जाकर,

पाऊंगी शान्त होकर” ।

 

बोली जटीला माई भी,

“बेटी, यह तुने अच्छी कही ।“

 

जटीला को मिले सुख,

चूमे वह बहू के मुख ।

 

(राधा) अपने भवन में आकर,

रखा थाली को ढंककर ।

 

शेखर ने धुलाया हाथ,

पुलकित उसके गात[8]

 

८१

 

रतन मंजरी करके जतन,

बिछाये प्यार से रतन-आसन ।

 

झारी को भरा सुगन्धि जल से,

रखा आसन के निकट प्यार से ।

 

लड्डू-थाल लायी लवंग-मंजरी,

रख दिया दूध की कटोरी ।

 

दही और केले के अचार,

रखा कटोरी भरकर ।

 

आकर आसन पे बैठीं राधा,

देखते ही भर गयी मन की साधा[9]

 

कानू-अवशेष का स्पर्श पाई,

अमृत-सागर में तैरे राई ।

 

पुलकित होगया राई का तनु,

पीतम-रस का शहद पिये जनु ।

 

अस्थिर अधर, भाव-विभोर हुई,

प्रेम मे मगन, भोजन ना करई ।

 

रतन की आंखों में आंसू आये,

खुद प्रियाजी को भोजन कराये ।

 

फिर भी धनी के न चले कर[10]

देखकर लवंग को लागे डर ।

 

मदन मंजरी को हो रहा मदन[11],

धनी को सुनाये मधुर वचन ।

 

“ऐसे कैसे बीतेंगे दिन ?

यह थोड़े ही है भाव के चिन्ह ?

 

जल्दी से न खायी, तो बीत जायेगी रैना,

हमें वक़्त पे है संकेत-कुंज में पहुंचना ।

 

 लेकर रंगवती, गुण-मंजरी और सखियां,

ललिता प्यारी अभी आयेगी यहां ।

 

विशाखा विषाद में दे चुकी खबर,

तुम्हारी सौतनें हैं मिलन के लिये तत्पर !!!

 

तुम अकेली तोड़ोगी घर में दम,

तिम्हारे साथ रोने को रहेंगी सिर्फ हम” ।

 

कामिनी सुनकर ये कपट वचन,

त्रास[12] में झटपट करने लगी भोजन ।

 

आचमन करके पोंछा  मुख,

ताम्बूल खाकर पायी सुख ।

 

सो गयी राई सुखद शेज पर,

शेखर हुआ दीवाना अवशेष पाकर ।

 

८२

 

जमुना-पुलिन, चम्पक-कानन, विलास-मन्दिर साज,

वृन्दा विधुमुखी विनोद बोछौना रचा उसके माझ ।

 

गद्दे में भरकर कमल की सुकोमल पंखुड़ी,

बिछाया पलंग पे, चौदिग लटके कुसुम-टोकरी ।

 

पलंग को ढंके सुन्दरी[13] रंग-बिरंगी चादर से,

फूलों की तकिया सजाये दोनों तरफ प्यार से ।

 

मन्दिर में फूलों का चन्द्रातप दिया बांध,

हर्षित हुई देख, अब पूरी हुई मन की साध ।

 

कनक-दीप जलाकर रखा कर्पूर ताम्बूल,

कनक-चौपाई पर रखा जल-सुशीतल ।

 

सुगन्धि शीतल बहे अनिल[14] पराग[15]-पूर्ण बाट,

सुख के सागर में झूमे मयुर, करें विनोद नाट ।

 

रात सुहानी ऐसी कि मदन बना कोतवाल,

कुसुम-शर कर में लेकर करे शहर की रखवाल ।

 

कोयल पंचम गाये, भ्रमर करें  गुंजन,

चांद बिखेरे चांदनी, खिल खिल जाये चितवन ।

वृन्दा बिछाना करके रचना, करे इन्तज़ार,

शेखर उसी क्षण, करके भोजन, दे राई को समाचार[16]

 

 


[3] प्राण

[4] मुर्छा जाये

[5] जोकर

[6] वात्सल्य-प्रेम से पूरित मैया-बापू को खुश करने के लिये, भोजन में मौजुद सभी रसों को गोपाल ने आस्वादन किया ।

[7] बहुत  ज़्यादा भोजन की वज़ह से, बलराम और कन्हैयाजी को आलस आ रहा था, और वे खा खा कर थक  गये थे ।

 

[8] देह

[9] इच्छा

[10] हाथ

[11] मदन-मंजरी प्रेम में मदहोश हो रही है ।

[13] वृन्दा

[14] पवन

[16] यह समाचार कि सब तैयारी हो चुकी है ।