राधा-माधव उठे शयन से अलस-अवश शरीर,
वनेश्श्वरी उस क्षण करके जतन लायी शारी-शुक कीर[1] ।
शुक-शारी को देखकर दोनों को हुआ आनन्द,
राई के इशारे पे वृन्दा पढ़ावे गीत-पद्य सुछन्द[2] ।
कानू के रूप लक्षण शुक करे वर्णन,
प्रेम-प्रफुल्लित पांख,
शारी पढ़त राई गुण भावत
कानू के जानकर कटाख[3] ।
इशारे को समझकर दोनों पंछी मिलकर,
पाठ करत अनुपाम,
सो वचनामृत कबहुं[4] क्या कान से सुनहुं[5] ?
पूछत दास बलराम ।
पढत कीर अमृत गिर[6]
ऐसे वचन-पंक्ति,
कोटिकाम श्याम-धाम,
नवीन नीरद कान्ति ।
बिजली वसन रतन आभुषण,
सुन्दर रूप शोभे,
जानू पे विलोल वैजयन्ती माला अमोल,
मधूप अति लोभे ।
चन्द्र-कोटी को किया छोटी,
ऐसे वदन इन्दुआ,
मोती-पंक्ति दांतों की कान्ति,
वचन अमृत-सिन्धुआ ।
काम-चाप युवती कांप
करत भाव भंगिया,
राधा-वदन चूमे सघन
ऐसे होंठ रंगिया ।
जानू लम्बित बांहें ललित
कर कोरक[7] भांतिया,
सुन्दर कमल जैसे करतल
उंगली चन्द्र-पांतिया ।
गोपी पटल कूच-मण्डल-
-लम्पट करे कम्पना
बलया मणि- भूषण बनि
कंगन करे झंकना ।
ह्रदय पीन कमर क्षीण
पेट पे त्रिवली बन्धना
मरकत मणि- स्तम्भक जिनि
सघन जानू छन्दना ।
बल्लवी परिरम्भन करे नटन-
रंग में चन्चल
नुपूर राव सतत गाव
चरन छूये अन्चल ।
नव रंगिम पद भंगिम
उंगली के नख चन्दा,
माधव-मन और रमणी-मन
चकोर निकर फन्दा ।
शारी पढ़त अति अनुरूप
ऐसे रस अमृत-कूप
राधा-रूप-वर्णना,
तपन, कंचन, चम्पक फूल
किस से करूं उनकी तूल
उस पर अगुरु चन्दना ।
चंचल ज़ुल्फों की वेणी-सज्जा
देखके सांपिनी पाये लज्जा
मांग पे सोहे रत्न-कंचन,
उसपे सुन्दर सिन्दूर रेखा
अलका हैं जैसे चित्रलेखा
ललाट पे कामयन्त्र रंजन ।
काम-धनुष भौं ठाम
नयन-पलक से मोहित काम
चिबुक पे कस्तुरी-बिन्दिया,
वदन जीते शरद-चन्दा
मदन-मोहन-मोहन-फन्दा
दांत करें कुन्द-निन्दिया[8] ।
कनक कमल कर के छन्द
ललित हैं बांहों के बन्ध
सोहे वलय और कंगना ।
नख मुकुर, कर-अंगुली
जीत लिये चम्पक-कलि
मणि-अंगूरी सोहे,
उच्च कुच-युग ऐसे उठत
जैसे स्वर्ण-मेरु-पर्वत
गिरिधर-मन मोहे ।
रोमावली नाभि-सरसी
कानू-मन-मीन बड़शी
आहार न खाये, डूबत जाये,
कमर क्षीण टूट पड़त
किंकिनी-जाल से बांधे रखत
ताकि ज़मीं पे न गिर जाये ।
कनक-कदली-सम्पूट माझ
है कानू का चित्त रतन-राज
इसलिये ढंके उरु पर्वया[9],
अरूण चरण पे मंजीर-साज
गति जीत ले कुंजर-राज
मृगमद, अगुरु, चन्दन-चन्द
को जीत ले राई अंग-गन्ध
श्याम-भ्रमर धाये[12],
माधव कहे, ‘‘त्यज फूल-वन
भ्रमर का भ्रमित मन
चरण-निकट गाये ।
शुक-शारी को दोनों मिलकर पढ़ाये
अंगूर, अनार के बीज खूब खिलाये ।
प्यार से दोनों हाथों पे बिठाये,
वात्सल्य से पीठ थपथपाये ।
पांसा-खेल की इच्छा हुयी जभी
सुदेवी के हरित-कुंज में गये सभी ।
सखियों ने बिछाया सुन्दर आसन,
एक ओर कृष्ण, एक ओर सखीगण ।
हितोपदेश के लिये बटू और ललिता
सुदेवी और सुबल बने चालन-अधीता[13] ।
राई-कानू पांसा खेलें दोनो दिल हैं मतवाले
पण[14] रखा सुरंग रंगिनी,
पहले जीते मोहन बटू हुआ प्रसन्न
बांध लिया रंगिनी-हिरनी ।
फिर खेले मस्त होकर मुरली-पाविका रखकर
अब जीत गयीं सुवदनी,
ललिता खुश होकर कानू के कर से छीनकर
छूपाये बंसी मोहनी ।
राई-कानू फिर से खेले दोनों अपनी चाल चले
बटू को एक खयाल आया,
कृष्ण को है जताना इसी चक्कर में वह बामना[15]
ने कृष्ण को उपदेश किया ।
‘‘कान्हा, मारो यह शारी, तो जीत होगी तुम्हारी’’
सुनकर शारी गयी डर,
वह हो गयी पानी-पानी कहने लगी दैन्य-वाणी
और चढ़ गयी पेड़ पर ।
राई-कानू यह देखकर हंस पड़े खिलखिलाकर
दोनों हुये हर्षित ।
चौथी बार रखा पण अपने सहचरगण[16] ।
‘‘राई की होगी जीत,’’
यह सोचकर बटू हुआ सशंकित और बड़ा ही भयभीत,
जब देखा गोविन्द का दान है छोटा,
‘‘जीत गये, जीत गये’’ चिल्लाकर एक पांसे को लिया चुराकर
अब कोई न समझ पाये खरा खोटा ।
पांसा उसीके पास था पर वह चिल्ला रहा था
‘‘पांसा कहां पांसा कहां ?
कोई बात नहीं, मैं ने देखा है सही
कि जीता है मेरा कान्हा !’’
क्रोधित होकर सखियां बटू को बांध लिया
हुआ बहुत बड़ा झगड़ा,
कान्हा तो है झू्ठा बटू उस से भी खोटा
सखियों ने किया मशवरा ।
यहां वृन्दा कुन्दलता मिलकर आग में घी डालकर
बढ़ाने लगे झगड़े का स्वाद,
सखियों ने किया तय और फिर बताया निश्चय
‘‘इस हार-जीत में है विवाद ।
हम इस हार को नहीं मानते तुम्हारी जीत को नहीं गिनते ।
अब खेलो फिर से एकबार ।
पन रखो अपने अंग आयेगा बड़ा रंग
हार-जीत का हम करेंगे विचार ।’’
यह सुनकर दोनों बैठे तांहि[17]
दस पांच दान दिया राई ।
सात दो चार पांच दान दिये कान्ह
राई के सब अंग लिये जितने थे दान ।
ऐसे खेल में हुये दोनों विभोर,
माधव[18] आनन्द में हुआ सराबोर ।
राधा माधव पांसा खेलत, करत विविध विधान,
दोनों बोले ऐसे, सिर्फ पिरीति हो जैसे, दोनों रस-खान ।
सखी री ! आज नहीं आनन्द की छोर !
दोनों रूप नयन भर पिवे, दोनों हैं चन्द्र-चकोर ।
हाथ से हाथ लगे जब खेलें, होवे अवश तब देह,
आनन्द-सागर में डूबे दोनों, भूल गये अपने गेह[19] ।
ऐसे में शुक ने कहा, ‘‘ जटीला आ रही, हाय !!’’
राधा-मोहन[20]-प्रभु[21] चतुर-शिरोमणि, सज गये द्विजवर-राय[22] ।
जटीला आगमन-वार्ता सुनकर भयभीत
सुर्य-मन्दिर में सब हुये उपनीत ।
घुस गये सब सुर्य-मन्दिर के अन्दर,
इतने में जटीला टीले से आयी उतर ।
दिनमणि-प्रणाम करने आयी जटीला,
उसने देखा, बैठी है सब गोप-बाला ।
कुन्दलता से पूछी, ‘‘यहां क्युं बैठी हो ?’’
वह बोली, ‘‘ पण्डित नाही मिलतजो’’ ।
जटीला बोली, ‘‘क्युं ? किधर गया बटू ?’’
कुन्दलता बोली, ‘‘तुम्हें देखकर भागा बटू ।
वैसे, और एक विप्र है, गर्ग मुनि का शिष्य’’
जटीला बोली, ‘‘ उसे ले आओ, अवश्य !’’
कुन्दलता गयी ब्राह्मण को लाने,
माधव[23] लगा पीछे पीछे चलने ।
जटीला आकर बोली सबसे, ‘‘ अब पुजारी लाओ जाकर’’
कुन्दलता हर्षित चित्त, उसी क्षण गयी दौड़कर ।
सब श्याम की अपरूप लीला देखकर विभोर,
अतुलनीय रूप धरे, बने गोपी-चितचोर ।
धीर शान्त कलेवर साक्षात विप्रवर,
कोई न पहचान पाये,
सौम्य स्निग्ध मूरत सांवली सलोनी सूरत
जो देखे, वही रीझ जाये ।
आकर सखी कुन्दलता वृद्धा को बताये वार्ता
‘‘ ये हैं मथुरा से गर्ग-छात्र,
कट्टर ब्रह्मचर्य करे पालन न देखे नारी-वदन
आया मेरी साधन से मात्र ।’’
जटीला हुयी हर्षमति की उसने प्रणति-स्तुति,
कहने लगी बहू से,
‘‘यह विप्र विज्ञवर सुशील, सर्व गुणधर,
पूजा कराओ इसीसे ।’’
सुन राई हर्षित होकर कहे धीरे धीरे जाकर
‘‘मुझसे कराओ मित्र[24]-पूजा,
तुम हो सर्व-मंगल तारो जग-सकल,
तुम्हीं मेरे पूजारी, नहीं दूजा ।‘’
तब वह विप्रवर राई का हाथ खींचकर
उसमें पुष्पांजलि रख दिया;
‘‘नमो नमो मित्रवरे ’’ यह मन्त्र उच्चारे,
और देवता को अर्घ्य प्रदान किया ।
वृन्दा को हर्ष अपार और आनन्द-आभार
‘‘दक्षिणा लो’’ बारबार कहई ;
वह बोला, ‘‘ यह मेरा पेशा नहुं सिर्फ तुम सब का प्यार चहुं’’
सुनकर जटीला खिल खिल गयी ।
संतुष्ट होकर रत्न-मुद्रा देकर
बोली, ‘‘रोज़ कराना पूजन’’
फिर दण्डवत प्रणाम कर चली राई को साथ लेकर,
संग चला यह यदुनन्दन[25] ।
सुर्य पूजाया[26] विश्वकर्मा[27] द्विजराज[28]
बटू को लेकर किया सब काज ।
पैसों के साथ बटू नैवेद्य भी बटोर लिये,
विदा लेकर दोनों बगीचे में चल दिये ।
सखाओं के साथ जा मिले सत्वर,
ब्राह्मण-वेष किये दूर गिरिधर ।
चूड़ा बांधकर वेणू लिया हाथ में,
सखा सब डूब गये हंसी-मज़ाक में ।
बटू के आंचल में नैवेद्य देखकर
राखाल उसपर झपटे घेरकर ।
दाऊजी के इशारे पे सब सखागण,
नैवेद्य के साथ उतारा उसका वसन ।
गुस्सा होकर बटू श्राप दिया, तो कानु मना किया,
उसको वस्त्र लौटाया, पर पहले उसे सताया ।
सखाओं के साथ कान्हा विविध खेल करें,
‘‘दोपहर हो गयी’’, कान्हाप्रिया पुकारे ।
सूर्य-पूजा करके लेकर संगिनी,
अपने मन्दिर में लौटीं रंगिनी[29] ।
छल से मुड़ मुड़ कर देखे बार बार,
दिल में विरह-सागर उथले अपार ।
बहू को सौंपकर सखियों के ठाम[30],
जटीला पहले ही कर दीं प्रस्थान ।
मन्थर गति चले सुवदनी राई,
रोज़ ऐसी लीला, मोहन[31] ले बलई ।
अपने घर सखी-संग
चलीं सुधामुखी,
प्रेमानले[32] दिल जले,
भीगी आंखी ।
अंग के वसन खिसके सघन[33]
दिल में दुख भरा,
इतनी व्यथा न निकले कथा,
हुई बावरी अपारा ।
धनी के घर्म[34] देखकर मर्म[35]
समझ गयीं सखियां,
छुपी बतियाँ बता दो प्रिया
क्युं भीगी हैं अंखियां ?
दिल में हो चैन सुख से बीते रैन
क्युं होती हो परेशान ?
पिउ को लेकर दिल में भरकर
तुम रहोगी सुबह-शाम ।
सखी की वाणी सुनकर धनी
धरी चित्त में आस,
शेखर लेकर घर में जाकर
दिलाए उन्हें दिलास ।
[1] तोता
[2] संगीतमय
[3] इशारा
[4] कभी भी
[5] सुनुंगा
[6] जैसे कि अमृत गिर रहा हो
[7] कमल का गुलाबी रंग
[8] निन्दा
[9] पर्वत-समान उरु को
[10] चांद का गुरूर
[11] तोड़ना
[12] भागे
[13] referee
[14] bet
[15] ब्राह्मण
[16] कन्हैया ने अपने सखाओं को पण रखा
[17] उसी जगह
[18] कवि माधव दास
[19] गृह, घर
[20] कवि
[21] श्यामसुन्दर
[22] जटीला का अगमन-वार्ता सुनते ही कन्हैयाजी उत्कृष्ट ब्राह्मण का रूप बना लिये ।
[23][23] कवि माधव दास
[24] मित्र = सूर्यदेव
[25] कवि
[26] सूर्य पूजा करवाया
[27] जब श्री कृष्ण ने ब्राह्मण का वेश बनाया तब उन्होंने अपना नाम ’विश्वकर्मा’’ बतलाया ।
[28] ब्राह्मण-श्रेष्ठ
[29] राई
[30] पास
[31] कवि राधामोहन दास
[32] प्रेमानल = प्रेम + अनल (अग्नि) ; प्रेम की अग्नि में;
[33] जोर से
[34] पसीना
[35] अन्दर की बाता
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