शची मां कितने ही भुषणों से
सजा रही हैं गोराचांद को प्यार से ।
मणियों से जड़े हुये विविध अलंकार
भुवन-मोहन वेष रमणी चित्त-हर ।
घूंघराले घन घटा ललाट पर लटके,
हवा में उड़ती नरम ज़ुल्फें चमके ।
उन्हें आगोश में ले कर मालती-माला,
हंसकर पंखुरियां बिखेरे उजाला ।
उस पर सजाये मोर के पाख,
और पत्तों के साथ कलियों के शाख ।
तप्त सोने को हरा दे वह अंग,
कमर पर कसे वह वसन सुरंग ।
चन्दन-तिलक ललाट पर सुहाये,
आजानुलम्बित वनमाला लुभाये ।
नटवर वेष धरे गोरा-चन्दा,
हसीनों के लिये वे तो हैं फन्दा ।
हुस्न ओ’ जवानी देख बासु तरसे
ढारस न रहे, दिल से आंसू बरसे ।