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जन्म से मैंने, गौर-गर्व में बिताया,
फिर कैसे जिऊं इतना दुख सहकर ?
उर बिना सेज का, स्पर्श ना जानूं[1],
सो तन अब लोटे ज़मीन पर ।
वदन-मण्डल, चांद झिलमिल,
सो अति सुन्दर चेहरा,
लगता है ऐसे, राहू के डर से,
चांद है भूमि पे गिरा ।
पद-उंगली से , ज़मीन पर लिखूं,
हो गई मैं पागल,
श्रावन की वर्षा जैसे, निर्झर झरे,
दिल हुआ विकल[2] ।
कभी तो मुख से, फेन निकले,
घन घन बहे निःश्वास,
गौर हरि से मैं, पुनः मिलाऊंगा,
निश्चय किया माधव दास[3] ।