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(प्रियाजी कहती हैं)
गौर-गर्व[1] में हाय, जीवन बिताया,
अब वे हुये निर्मम[2],
अपनों के वचन, गरल सम लागे,
गृह हुआ अग्नि सम[3] ।
याद कर उनका मुख, दिल फटा जाये,
शूल चूभे वक्ष में,
गौरांग बिना, दिवस ने बीते,
नींद न आये रात में ।
चैन न पाऊं, ज़मीन पर लोटूं,
पवन-अनल[4] जलाये अंग,
सखि ! क्या करूं, किससे भेजूं सम्वाद,
क्या, मिलेगा उनका संग ?
व्यथित जन[5], समझाये अनुक्षण,
“धीरज धरो दिल में,”
सतत यही गुण[6], करूं अवलम्बन,
वज्र गिरे माधव के सर पे[7] ।
[1] गौरांग मेरे हैं, इस गर्व में जीवन बिताया ।
[2] निष्ठुर
[3] अपनों के मीठे बोल, अर्थात गौर-विषयी प्रसंग या तो उनके द्वारा की गयी कोई बात, जो गौर की याद दिलाये, विष जैसे प्रानघाती लग रहे हैं । गृह भी अग्नि समान लग रहा है, क्युं कि वहां भी सर्वत्र गौर की यादें हैं ।
[4] शीतल पवन और ज़्यादा रति उद्रेक करता है ।
[5] सभी नबद्वीपवासी गौर विरह में व्यथित हैं, और प्रियाजी को समझाने का प्रयास कर रहे हैं ।
[6] यही गुण = प्रियाजी कह रही हैं कि वे धीरज / संयम सतत ही रखने की कोशिश कर रही हैं ।
[7] सन्त कवि माधव दास प्रार्थना करते हैं कि प्रियाजी की ऐसी हालत देखने से तो अच्छा है कि वज्र के आघात से मर जायें ।