Priyaji’s viraha

३४

(प्रियाजी कहती हैं)

गौर-गर्व[1] में हाय,        जीवन बिताया,

अब वे हुये निर्मम[2],

अपनों के वचन,     गरल सम लागे,

गृह हुआ अग्नि सम[3]

 

याद कर उनका मुख,     दिल फटा जाये,

शूल चूभे वक्ष में,

गौरांग बिना,       दिवस ने बीते,

नींद न आये रात में ।

 

चैन न पाऊं,        ज़मीन पर लोटूं,

पवन-अनल[4] जलाये अंग,

सखि ! क्या करूं,        किससे भेजूं सम्वाद,

क्या, मिलेगा उनका संग ?

 

व्यथित जन[5],       समझाये अनुक्षण,

“धीरज धरो दिल में,”

सतत यही गुण[6],        करूं अवलम्बन,

वज्र गिरे माधव के सर पे[7]



[1] गौरांग मेरे हैं, इस गर्व में जीवन बिताया ।

[2] निष्ठुर

[3] अपनों के मीठे बोल, अर्थात गौर-विषयी प्रसंग या तो उनके द्वारा की गयी कोई बात, जो गौर की याद दिलाये, विष जैसे प्रानघाती लग रहे हैं । गृह भी अग्नि समान लग रहा है, क्युं कि वहां भी सर्वत्र गौर की यादें हैं ।

[4] शीतल पवन और ज़्यादा रति उद्रेक करता है ।

[5] सभी नबद्वीपवासी गौर विरह में व्यथित हैं, और प्रियाजी को समझाने का प्रयास कर रहे हैं ।

[6] यही गुण = प्रियाजी कह रही हैं कि वे धीरज / संयम सतत ही रखने की कोशिश कर रही हैं ।

[7] सन्त कवि माधव दास प्रार्थना करते हैं कि प्रियाजी की ऐसी हालत देखने से तो अच्छा है कि वज्र के आघात से मर जायें ।