१
राग सिन्धुड़ा
जलद-पुंज जैसे वर्ण,
तरुण-अरुण-स्थल- कमल-दल-अरुण[3]
मंजीर-रंजित-चरण ।
देखो सखी नागर-राज करे विराज,
सुधा-रस टपके, हास विकसित,
रूप ऐसा कि चांद को आये लाज ।
इन्दीवर-वर- गर्व-विमोचन[4],
लोचन मन्मथ-फन्दा,
भौं-भुजग-पाश[5] से बंध लिया कुलवती,
मनमोहन चेहरा-चन्दा ।
भ्रमर भटके जानू तक लटके,
केलि-कदम्ब की माला[6],
गोविन्द-दास-चित्त विहारे नित नित,
ऐसी मूर्ति रसाला ।
[1] यहां पर अंजन का अर्थ काजल नहीं है, बल्कि अंजन एक उज्वल रसायन है; श्यामसुन्दर का वर्ण अंजन से भी उजला है ।
[2] वे त्रिजगत के लोगों को आनन्द प्रदान करते हैं ।
[3] तरुण अर्थात ताज़े गुलाबी स्थलकमल के समान गुलाबी चरण जो मंजीर (नुपूर) से शोभित हैं ।
[4] इन्दीवर-वर (श्रेष्ठ नील कमल) का गर्व अच्छे से तोड़े ऐसे नयन, जो कामदेव के फन्दा है ।
[5] उनके भौंहें, भुजग (सांप) जैसे हैं, और वे इनको रज्जु की तरह इस्तेमाल करके कुलवती रमणियों को फांसते हैं ।
[6] कदम्ब की माला, केलि, अर्थात रति-रस के लिये आतुर करती है । उसके इर्द गिर्द भ्रमर घूमते हैं, और वह जानू तक लटकती है ।