बाघनापाड़ा वर्धमान जिला में है | यहां जाने के लिए आपको बैंडेल - कटवा ट्रेन पकड़ना होगा । नवद्वीप से बाघनापाड़ा तीन स्टेशन दूर है । मंदिर जाने के लिए बाघनापाड़ा स्टेशन से बस या ऑटो ले सकते हैं । मंदिर विशाल एवं काफी ऊंचा है । मूल मंदिर में कानाई-बलाई (कृष्ण-बलराम) के विग्रह हैं । एक तरफ जगन्नाथ-बलदेव-सुभद्रा के विग्रह हैं, और दूसरी तरफ श्री राधारानी एवं बलराम-प्रिया रेवती विराजमान हैं । तीनों मंदिरों में अच्छी सेवा-पूजा होती है । रात में पुजारी जी राधारानी को कानाई के पास और रेवती को बलाई के पास शयन देते हैं ।
रामाई ठाकुर श्री जाह्नवा माता के पालित पुत्र थे । भक्तों को उनमे एवं वसुधा-माँ के गर्भजात पुत्र वीरचन्द्र प्रभु में कोई फर्क नहीं देखना चाहिए । दोनों श्री नित्यानन्द-संतान हैं एवं हर तरफ से समान हैं । जब जाह्नवा ठकुरानी काम्यवन के गोपीनाथ में लीन हो गयीं, तब रामाई ठाकुर रोते रोते लौट रहे थे । तब उनको यमुना जी से कानाई-बलाई मूर्ति प्राप्त हुईं । वे उन्हें लेकर भाल्लुका नदी के तट पर स्थित राधानगर आए । उस समय यहाँ घना जंगल था । जंगल में बाघ रहता था । जब भी रामाई ठाकुर संध्या-कीर्तन करते थे, तब वह बाघ आकर सुनता था । एक दिन कीर्तन सुनने के बाद बाघ उन्हें प्रणाम करके प्राणत्याग दिया । रामाई ठाकुर ने उस बाघ को वैष्णव जानकार उत्सव मनाया और उसे समाधि दी । उस समय से स्थान का नाम बाघनापाड़ा हो गया । यहाँ भगवान की सेवा-परिपाटी प्रशंसनीय है । विग्रह अतीव सुन्दर और मनमोहक हैं । पीछे के हिस्से में एक पुष्करिणी है । उसकी भी अलौकिक महिमा है ।
पुटशुड़ी वर्धमान ज़िला में है | आप जब देनुड़ जायेंगे, तब यह आपके रास्ते में पड़ेगा | यहाँ श्री गोपाल दास का श्रीपाट है | वैशाखी एकादशी में उनका अविर्भाव दिवस है, और उनकी पुण्यतिथि कोजागरी पूर्णिमा के दिन है | भक्तगण ये दोनों दिन बड़े धूमधाम से मनाते हैं | गोपाल दास जी श्री गोपीनाथ जी की सेवा करते थे | इसलिये यहाँ आपको गोपीनाथ का दर्शन होगा | मंदिर के अंगन में गोपाल दास जी की समाधि है | यहाँ गजकाली माता का मंदिर भी देखने योग्य है |
देनुड़ वर्धमान जिला में पड़ता है | यहां दीनेश्वर शिवजी का मन्दिर है | दीनेश्वर से देनुड़ नाम पडा है | आप यहां दो तरीके से जा सकते हैं | आप मेमारी रेल स्टेशन से बस मे बैठिये और पुटशुड़ीमे उतरिये | आपको को २ से २-३० घण्टे लगेंगे | अथवा आप नवद्वीप - वर्धमान बस में बैठ जाइये, और कुसुमग्राममे उतरिये | वहां से बस या टेम्पो पकड़कर पुटशुड़ी आ जाइये | पुटशुड़ी से देनुड़ 3 किमी की दूरी पर है | वहां आप संकीर्तन करते हुयेचलके जा सकते हैं, जैसे हम गये थे, या फ़िर बस / ऑटो ले सकते हैं |
देनुड़ वह पुण्य स्थान है, जहां व्यासदेव के अवतार श्री वृन्दावन दास ठाकुर ने चैतन्य भागवत की रचना की थी | श्री मन्दिर अतीव रम्य स्थान है | श्री वृन्दावन दास ठाकुर द्वारा सेवितनिताई-गौर इतने मन-मोहक और मधुर हैं कि आपके पलक नहीं झपकेंगे | यहां पत्थर के फ़लक पर लिखा है –
"अन्तर्यामी श्री नित्यानन्द प्रभु हंसकर बोले - हे वृन्दावन दास, तुम प्रभु के बारे में जो कुछ जानते हो, वह लिखो | यद्यपि मैं अल्प-ज्ञानी हूं, नित्यानन्द प्रभु की आज्ञा को शिरोधार्य करके। उनके चरणों को स्मरण करते हुए, मैंने इस ग्रन्थ को लिखा |"
इसके अलावा मन्दिर में श्री श्री राधा-श्याम और जगन्नाथ के विग्रह भी शोभित हैं | थोड़ी दूरी पर धरा नाम की एक पुष्करिणी है | ४५०वर्ष पूर्व इसके चारों तरफ़ आम का बगीचा हुआ करता था | और भी कई वृक्ष थे | इस तरह यह स्थान बड़ा ही मनोरम था | नित्यानन्द प्रभुने अपने वैष्णव साथियों के साथ यहां पुलिन-भोजन मनाया था | किन्तु बड़े दुख के साथ बता रही हूं, कि, अब यहां न कोई वृक्ष है न बगीचा |
एकबार ऐसे ही भोजन के बाद निताईचाँद ने वृन्दावन दास जी से मुखवास मांगा | वृन्दावन दास जी के पास कोई मुखवास न था | वे जाकर दुकान से हरितकी ले आए | यदि अगले दिन भी प्रभु ने मुखवास मांगा तो ? यह सोचकर दो हरितकी ले आए | प्रभु को एक दिया और एक रख दिया | दुसरे दिन प्रभु ने फ़िर से मुखवास मांगा | तब वृन्दावस दास जी झट से हरितकी दे दिया | असल में प्रभु उनकी परीक्षा ले रहे थे | वृन्दावन दास जी की बड़ी इच्छा थी, कि वे सब कुछ छोड़ छाड़कर वैरागी वेष में नित्यानन्द प्रभु के साथ पुरी जाकर वहीं बस जाए | निताईचाँद ने कहा - "वृन्दावन दास, मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था | इस घटना ने साबित कर दिया कि तुम संचयी प्रवृत्ति के हो | तुम कभी सच्चे वैरागी नहीं बन सकते | वैराग लेकर यदि कोई जमा-पून्जी करे, वह गलत है | बेहतर होगा कि तुम गृहस्थ बनकर भजन करो | ऐसा करने से कपटता से बचे रहोगे |" ऐसा कहकर प्रभु ने उस हरितकी को मिट्टी में गाढ़ दिया | उससे हरितकी वृक्ष उपजा, जो अभी भी है | उस स्थान को हरितकी-तला कहते हैं |
यहाँ आप को निताईचाँद के पादपीठ का दर्शन होगा | पूजा-मन्दिरका निर्माण 1366 बंग़ाब्द, आषाढ़ के महीने में हुआ | पास में एक वटवृक्ष है |
श्री रामहरि महन्त, जो परम वैष्णव थे, उन्होंने देखा, कि, जब प्रभु पुरी चले गये, तब वृन्दावन दास ठाकुर विरह में रोते हुए धूल में लोटपोट खाने लगे | विदा के ठीक पहले नित्यानंद प्रभु ने रोते बिलखते वृन्दावन दास को बाहों में भरके कहा था –
"प्रभुरे देखिबे हेथा, ना होइओ चञ्चल,
एथा रहि करो सब् जीबेर मङ्गल |
प्रभुर बिग्रह इह करह स्थापन,
बिग्रहे पाबे सदा प्रभुर दरशन |"
अर्थ : "हे वृन्दावन दास ! तुम परेशान मत होना | मैं तुम्हें वर देता हूं, कि तुम्हें सर्वत्र महाप्रभु का दर्शन होगा | तुम यहां महाप्रभु के विग्रह की स्थापना करो | विग्रह में तुम्हें प्रभु क दर्शन मिलेगा | तुम यहीं पर रहकर भजन तथा सेवा करो | इस तरह तुम जीवों का कल्याण करोगे |"
उसके बाद श्री रामहरि महन्त ने वृन्दावन दास को स्वस्थ किया, उनका शिष्यत्व ग्रहन किया, और उनकी सेवा में लग गये |
यहां आपको श्री वृन्दावन दास ठाकुर द्वारा विरचित ग्रन्थ श्री चैतन्य भागवत का दर्शन होगा | साथ ही साथ एक और ग्रन्थ है - श्री गदाधर पण्डित द्वारा लिखित श्रीमद भागवतम् के दशम स्कन्ध और उसके नीचे महाप्रभु के अपनी लिखावट में कुछ टिप्पणी | महाप्रभु की हस्तलिपि साक्षात मुक्ताक्षर हैं, देवदुर्लभ है, किन्तु हम उसे पढ़ नहीं पाए |
थोड़ी दूरी पर प्रभु के सन्यास गुरु श्री केशव भारती का जन्मस्थान है | वहां आपको राधा-कृष्ण, गोपाल, जगन्नाथ, १५ शालग्राम, देवी मूर्ति, और केशव भारती की मूर्ति का दर्शन होगा |
कलियुग के व्यास-अवतार श्री वृन्दावन दास ठाकुर के जन्मस्थान को हमारा प्रणाम है |
तमलुक का असली नाम ताम्रलिप्त है । यह पूर्व मेदिनीपुर ज़िला में अवस्थित है । यहां श्रीमन्महाप्रभु के प्यारे कीर्तनीय वासुदेव घोष का श्रीपाट है | हावरा - मेचेदा / मेदिनीपुर / पाँशकूड़ा / खड़गपुर - किसी भी लोकल ट्रेन में बैठ जाइये । मेचेदा स्टेशन पे उतरकर बस स्टैंड से श्रीरामपुर / पुरुषाघाट / टेंगरा की बस पकड़िए और १७ कि.मी दूर तमलुक जेलखाना में उतर जाइये । सारे मंदिर आपको जल्द ही दिख जायेंगे ।
श्रीमन्महाप्रभु जब पुरी जा रहे थे, तब पहले आटिसारा छत्रभोग गए थे, और फिर वहाँ से तमलुक आये थे | तारीख था २० फाल्गुन, बंगाब्द ९१६ | उस समय तमलुक तथा मेदिनीपुर ज़िला ओड़िशा के अंतर्गत थे । पार्षदों के साथ महाप्रभु नौका में तमलुक के प्रयाग घाट आये । यहाँ सम्राट युधिष्ठिर द्वारा स्थापित शिवजी के विग्रह है । महाप्रभु ने उनको प्रणाम किया और उस रात तमलुक में रह गए । संगी-साथियों को एक देवस्थान में ठहराकर स्वयं भिक्षा के लिए निकल पड़े । हमारे प्रभु ने सभी भक्तों के भोजन का दायित्व अपने कन्धों पर ले रखी थी, और आज भी ले रखी है । तमलुकवासियों ने प्रभु के इस भिक्षा-ग्रहण को अपना सौभाग्य समझा, और कई पीढियों तक इसकी चर्चा चलती रही । पूरी रात प्रभु ने तमलुक में सारे रहिवासियों और भक्तों को कथा-कीर्तन का आनंद कराया |। इसलिए तमलुक की रज बहुत ही पवित्र है और आज भी पूजनीय है |।
तमलुक के जिस स्थान पर श्री वासुदेव घोष ने भजन किया और अप्रकट हुए, वह स्थान 'नरपोता' नाम से विख्यात हुआ | वासुदेव घोष का श्रीपाट यहीं पर है । वासुदेव घोष महाप्रभु के प्रसिद्ध कीर्तनीया हैं | ।
"गोविन्द माधव वासुदेव तिन भाई,
जा सभार कीर्तने नाचे चैतन्य गोसाईं ।"
-(श्री चैतन्य भागवत)
"वासुदेव गीते करे प्रभुर वर्णने,
काष्ठ-पाषाण द्रवे जाहार श्रवणे ।"
-(श्री चैतन्य चरितामृत)
अर्थ - "गोविन्द, माधव और वासुदेव तीन भाई हैं, जिनके कीर्तन में श्री चैतन्य महाप्रभु सहर्ष नृत्य करते हैं । वासुदेव घोष तो प्रभु के इतना सुन्दर वर्णन करते हैं, कि उन कीर्तनों को श्रवण करने से पत्थर भी विगलित हो जाते हैं ।"
वासुदेव घोष महाप्रभु से इतना प्रेम करते थे कि महाप्रभु के सन्यास ग्रहण के बाद वे नदिया में नहीं रह सके । उनको लगा - प्रभु के बिना नदिया कैसा ? विरह की अग्नि में जलने लगे |। तब उन्होंने तमलुक में आकर श्रीपाट की स्थापना की । कई वर्ष पश्चात जब उनको महाप्रभु के अप्रकट-लीला का समाचार मिला, तब वे आपा खो बैठे | उनको इतना गम्भीर शोक पहुंचा कि उन्होंने प्राण विसर्जन करने का संकल्प किया । उन्होंने मिटटी में एक बहुत बड़ा गड्ढा खोदा । चारों तरफ भक्तों से कहा की उच्चै:स्वर में महामंत्र संकीर्तन करे । फिर वे और उनकी पत्नी - आँखों पर पट्टी बाँधी और गड्ढे में बैठ गए । उन्होंने भक्तों से अनुरोध किया कि वे मिट्टी डालकर गड्ढे को भर दें । भक्त शोकातुर हो गए । भारी ह्रदय से वे संकीर्तन के साथ साथ गड्ढे को भरने लगे । किन्तु फिर उन्होंने देखा कि वासुदेव घोष समाधिस्थ हो गए हैं । तब भक्तों ने मिट्टी डालना बंद कर दिया । वे हर्षित हो गए यह सोचकर कि अब उनको पता ही नहीं चलेगा कि हम ने मिट्टी डालना बंद कर दिया है । फिर वे हम से जोराजोरी भी नहीं कर सकेंगे । जब रात गभीर हुयी , तब एक चमत्कार हुआ । वासुदेव घोष की आँखों की पट्टी अपने आप खुल गयी । प्रभु ने बालक-वेश में उनको दर्शन दिया । भक्त और भगवान एक दुसरे की बांहों में समां गए ।
"बले, कोथा छिले प्रभु आमारे छाडिया ?
दरिद्र धन पाय जेनो फेलाइया ।
एतो बलि कोले धरि हृदे लागाइला,
प्रभु कहे वर मांगो बलिया बलिला ।
घोष बले यदि मोरे करिबे सुदया,
सदा एइखाने तुमि रबे मोरे लैया ।
एतो शुनि महाप्रभु अंगीकार कोइलो,
सेई दिनाबधि प्रभु सेथाई रहिलो ।"
-(श्यामानंद प्रकाश)
अर्थ - "वासुदेव घोष ने पूछा - प्रभु आप मुझे छोड़कर कहाँ चले गए थे ? अब आपको देखकर मुझे ऐसा लग रहा है जैसे निर्धन को अपना खोया हुआ धन वापस मिल गया है । प्रभु ने कहा - वासुदेव, तुम मुझसे इतना प्रेम करते हो ? मैं तुम से अति प्रसन्न हूँ । तुम्हें जो चाहिए वह मुझसे मांग लो । वासुदेव ने कहा - प्रभु , यदि कुछ देना ही चाहते हो, तो मुझे वचन दो कि तुम मुझे छोड़कर फिर कभी नहीं जाओगे । तुम मेरे साथ यहीं पर रहोगे । यह सुनकर महाप्रभु बड़े खुश हुए । उन्होंने वासुदेव की बात को स्वीकार किया, और उस दिन से वे वहाँ रहने लगे ।"
उस दिन से वासुदेव घोष आनंदित मन से महाप्रभु के श्री विग्रह की सेवा पूजा करने लगे । वासुदेव घोष को जीवित अवस्था में मिट्टी देने की बात हुई, इसलिए इस स्थान का नाम "नरपोता" हो गया । (बँगला में नर = मनुष्य, पोता = गाढ़ना) बाद में जब वासुदेव घोष अप्रकट हुए, तब भक्तों ने उन्हें इसी स्थान में समाधिस्थ किया । उस स्थान पर एक बकुल वृक्ष शोभायमान है । यह वृक्ष इस स्थान की महिमा बढ़ा रहा है, और इस प्रेम-लीला का साक्षी है ।
वासुदेव घोष के अप्रकट होने के पश्चात मुसलमानों के अत्याचार के कारण, ब्राह्मण पुजारी श्रीविग्रह को लेकर अपने गाँव मिर्ज़ापुर ले आये । वहाँ उन्होंने विग्रह को एक मोटे गलीचे में लपेटकर छिपा दिया । एक दिन महाप्रभु ने श्यामानंद प्रभु को स्वप्नादेश दिया कि उनका वहां से उद्धार करें, और वापिस उनकी सेवा-पूजा शुरू करें । श्यामानंद प्रभु स्वप्नादेश पाकर आनंदित मन से तभी के तभी वैष्णव संगी साथियों को लेकर महा-संकीर्तन करते करते तमलुक लिए निकल पड़े । यहाँ पहुंचकर वे राजा के दुर्गा-मंडप में बैठ गए । अब हुआ यूँ कि राजा चण्ड विद्याधर नामक एक मायावादी सन्यासी का अनुयायी था । वह सन्यासी वैष्णव विद्वेषी था । इसलिये राजा ने परिवार सहित श्यामानन्द प्रभु से मिलने आना तो दूर, उन्हें वहां से चले जाने को कह दिया । श्यामानन्द प्रभु दैन्य पूर्वक वहां से चल दिये । उनके चले जाने के बाद, राजा के निर्देशानुसार लोग श्यामानन्द प्रभु जहां बैठे थे, उस स्थान के शुद्धिकरण हेतु वहां की मिट्टी खोद कर फेंकने लगे । किन्तु जितना भी खोदते, मिट्टी फिर से भर जाती । इस अलौकिक घटना को देखकर राजा के मन में श्यामानन्द प्रभु का आनुगत्य स्वीकारने का मन हुआ । उन्होंने सन्यासी को विदाई दी तथा श्यामानन्द प्रभु को लौटा लाये । उन्होंने महा-संकीर्तन का आयोजन किया तथा पूजारी के घर से विग्रह को ले आये । आज भी मन्दिर में उसी विग्रह की पूजा हो रही है । प्रत्येक वर्ष भक्तगण वैशाखी शुक्ला त्रयोदशी को वासुदेव घोष के तिरोभाव का उत्सव बड़े धूमधाम से मनाते हैं ।
तमलुक मे श्यामचाँद का विग्रह भी है । इनकी प्रतिष्ठा माधवी दासी ने की थी । महन्त श्री चरण दास सेवित एक जगन्नाथ देव की मूर्ति है । प्रवेश पथ पर रासमंच मन्दिर बहुत सुन्दर और दर्शनीय है । यहाँ आठ जन महन्तों की समाधि है । पास में ताम्रध्वज राजा का राजपुर है । एक समय था जब राजपुर में कितना कोलाहल था, और आज केवल ध्वंस-स्तुप है ! राज-मन्दिर में राधारमण, राधा-कृष्ण तथा राधा-माधव के सुन्दर दर्शनीय विग्रह हैं । इसके पास ही राम-सीता के मन्दिर और जगन्नाथ के मन्दिर हैं । यहाँ द्वापर युग के साक्षी श्रीजिष्णुहरि मन्दिर है । इनकी कथा इस प्रकार है –
ताम्रध्वज राजा ने महाभारत में अश्वमेध यज्ञ के अश्व को पकड़ लिया था । राजा बहुत बड़े श्रीकृष्ण-प्रेमी थे । इसलिये युद्ध में अर्जुन परास्त हो गये । गोविन्द ने आकर अर्जुन को बचाया । राजा की भक्ति से गोविन्द आज भी चतुर्भुज रूप में सेवा ग्रहण कर रहे हैं । दाईं तरफ श्रीकृष्ण और बाईं तरफ जिष्णु अर्थात अर्जुन । दोनों चतुर्भुज हैं। पूजारी ने कारण बताया, “ क्युंकि श्रीकृष्ण के विग्रह को कभी कभी बाहर ले जाना पड़ता है ।"
भगवान का मुख दक्षिण की तरफ है, क्युंकि राजा का यही निर्देश है । राजा की ऐसी इच्छा थी कि वे राजपुर से भगवान का दर्शन कर सकें ।
निकट चक्रेश्वर शिवजी हैं । कुन्तीमाता इनकी सेवा करतीं थीं । महाप्रभु ने इनका ही दर्शन किया था । इसके पास "वर्गभीमा-माताजी" का मन्दिर है । ५१ शक्तिपीठ के अन्यतम । यहां माताजी की बाईं एड़ी गिरी थी । वर्गभीमा माता के कई चमत्कार हैं । एक मछुआरिन प्रतिदिन ताम्रध्वज राजबाड़ी मे ढेर सारी जीवित मछलियाँ लाकर देती थी । उसका नाम था भीमा । उस समय मयुरवंशीय राजा ताम्रध्वज शासक थे । इतनी सारी जीवित मछलियाँ वह प्रतिदिन कैसे लाकर देती है, खोजने पर उनको ज्ञात हुआ कि जंगल में एक रहस्यमय कुण्ड है । वह अमृत-कुण्ड है । मछुआरिन राजबाड़ी मे प्रवेश करने के ठीक पहले उस कुण्ड के जल को मृत पर छिड़काकर फिर से जीवित कर देती थी । इस अलौकिक घटना को सुनकर राजा ने स्वयं अपनी आँखों से इस कुण्ड को देखना चाहा । किन्तु उन्हें वह सौभाग्य नहीं मिला । उनके जंगल मे प्रवेश करते ही, वह कुण्ड अदृश्य हो गया । इसके बदले उनको एक वेदी दिखी, जिसपर एक देवी-मूर्ति थी । चुंकि यह स्थान भीमा के अंचल में था, इसलिये देवी का नाम वर्गभीमा रखा गया । आज भी दुर्गा पूजा के प्रारम्भ में राजबाड़ी से एक शाणित तलवार देवी को भेंट स्वरूप दिया जाता है ।
एक और घटना बताती हूं । उस समय ताम्रलिप्त की बन्दरगाह सुप्रसिद्ध थी । बड़े बड़े जलपोतों का आना जाना रहता था । देश-विदेश के साथ वाणिज्य सम्पर्क था । एकदिन धनपति नाम का एक व्यापारी जलपथ से आकर ताम्रलिप्त के बन्दरगाह में उतरे । उनको किसी तरह पता चला था कि नगर की छोर में एक कुण्ड है, जिसमें पीतल डूबोने से सोना हो जाता है । धनपति ने इस मौके का लाभ उठाया । इसके बाद उसने श्रीलंका से जो धन कमाया था, उससे वर्गभीमा माता के लिये इस मन्दिर का निर्माण कराया ।
जगन्नाथ मन्दिर के विपरीत दिशा में 'नेता' नामक धोबिन का सिलबट्टा है । बेहुला-लखीन्दर की प्रेम-गाथा बंगाल की संस्कृति के साथ ओतप्रोत रूप से बँधी है । बेहुला के प्रेम ने लखीन्दर को मृत अवस्था से जीवित किया था । देवी समान बेहुला ने इसी सिलबट्टे पर कपड़े धोये थे । इसलिये इस सिलबट्टे को एक छोटे से मन्दिर में रखकर आज भी इसकी पूजा की जाती है ।
सच, तमलुक के कण कण में दिव्यता बसती है, इसमें कोई सन्देह नहीं । तमलुक की रज को बारम्बार प्रणाम ।
श्री भगवान आचार्य का श्रीपाट मालीपाडा में स्थित है | पुरी में इसी श्री भगवान दास के कुटीर में छोटो हरिदास वाली घटना घटी थी |
चूंचुडा रेल स्टेशन या वहाँ के बस स्टैंड से तारकेश्वर की बस पकड़िये | सेनेट नाम के स्टॉप पर उतरिये | फिर वहाँ से तारकेश्वर-पांडुआ १७/१८ नंबर बस लीजिये और मालीपाड़ास्टॉप पर उतरिये |
भगवान आचार्यमहाप्रभु के पार्षद थे | यद्यपि वे गृहस्थ थे, उनका विषय के प्रति प्रबल वैराग था | महाप्रभु की ईच्छा से उन्होंने विवाह किया | उनकी पत्नी का नाम श्रीमती कमला देवी | उनके दो पुत्र थे - रमानाथ और रघुनाथ | रघुनाथ की पहली पत्नी से उन्हें सात पुत्र प्राप्त हुए | उनकी सात हवेलियाँ हैं | रघुनाथ की दुसरी पत्नी से पांच पुत्र प्राप्त हुए | उनके नाम पांच हवेलियाँ हैं | दो काफी ऊंचे और आकर्षक मंदिर हैं | दोनों मंदिर भक्तों को अवश्य ही अच्छे लगेंगे | मूल मंदिर श्रीश्रीमदनगोपाल जी का है | वहीँ पर श्रीश्रीराधावल्लभ जी भी विराजमान हैं |
भगवान आचार्य के पूर्वज तांत्रिक थे | जब उन्होंने महाप्रभु का आश्रय ग्रहण किया, तब उन्होंने पूछा कि, "हम इतने वर्षों तक वंश-परम्परा से शक्ति की उपासना करते आये हैं | अब इन चित्रों तथा घट का क्या होगा ?" तब महाप्रभु ने कहा - "इसमें तनिक भी चिंता का विषय नहीं | यह शक्ति अघटन-घटन-पटीयसीयोगमाया की बहिरंगा रूप है | उन्हें गंगाजी में मत बहाओ | वे श्री कृष्ण-लीला की सहायिका हैं | तुम इन्हें योगमाया समझकर पूजा करो |" इसीसे ज्ञात होता है कि वैष्णव धर्म बड़ा उदार है | इसकी कोई तुलना नहीं | यह कभी किसी धर्म या सम्प्रदाय को आहत नहीं करता | कितना आश्चर्य की बात है ! आज भी वही ५०० वर्ष पुराना घट की पूजा हो रही है | ऐसा दृश्य आपको कहाँ देखने को मिलेगा ? यहाँ एक "काली-यंत्र" भी है | इस मंदिर में गोपाल-मूर्ती विराजमान हैं |
वैसे तो, जैसे ही आप प्रवेश करेंगे, पहले श्रीश्रीराधाकांत जी का दर्शन होगा | श्रीकृष्ण के दक्षिण में राधारानी और बांयी तरफ बोड़ाल-राजा की बेटी है | घटना ऐसी है, कि, एक दिन बोड़ाल राजा अपनी ९ वर्षीया इकलौती बेटी को लेकर मंदिर दर्शन के लिए आये थे | वहाँ बेटी का अकस्मात् देहांत हो गया | राजा बेहोश होकर गिर पड़े | वे चीख उठे - "भगवान् ! तुमने यह क्या किया ? क्या यही तुम्हारे दर्शन का परिणाम है ? लौटा दो मेरी बेटी को !" तब गोविन्द ने कहा - "यह मेरी ईच्छा से हुआ है | तुम्हारी बेटी मरी नहीं है | मैंने उसे ग्रहण किया है | तुम अपनी बेटी की मूर्ती बनाकर मेरी बांयी तरफ रख दो | वहां उसकी पूजा होगी |" यहाँ लक्ष्मी-जनार्दन शिला भी दर्शनीय है |