(कभी तो राधारानी पहले ही पहुंच जाती हैं और श्यामसुन्दर उनको पहचान नहीं पाते) –
वृन्दा कहे ‘कान, करो अवधान,
नागरी है सरसी कूल,
करने देवता-पूजन, लाई हूं करके जतन,
वह देखो बकुल-मूल’ !
और देखो तुम्हारा कुरंग, जा मिला है रंगिनी संग,
तांडवी देख तांडव भंग, और फिर उठा मदन रंग ।
चकोर-चकोरी मिल गये, मिले सारिका-शुक,
नागर, जाकर नागरी से मिलो, मिटाओ दिलका दुख ।
वृन्दा का वचन सुन, नागर उसी क्षण,
आया बकुल-तले,
राई मुख देख कान, न सके पहचान,
हंसकर राधा-सखी बोले ।
कानू कहे राई को देखकर विस्मय से चकित होकर,
कान्ति की कूल-वधू है क्या ?
तारुण्य-लक्ष्मी है क्या ? माधुर्य-मूरत है क्या ?
क्या लावण्य की आयी है वन्या ?
आनन्द से भर गये मेरे नयन !
क्या ये मेरी ही धनी ? रसमय स्वरुपिणी ?
जो करे मेरे मन को प्रसन्न !
क्या है ये आनन्द की सरित ? या कोइ सागर भरा अमृत ?
या शायद है चन्द्रमुखी राधिका,
आनन्दित करने मेरी इन्द्रियां साथ ले आयीं हैं सखियां
ये सचमुच मेरी अनन्य आराधिका ।
चकोर हैं मेरे नैन राधा-सुधा के लिये बेचैन
क्या आयी है वह चन्द्र-वदनी ?
भृंगराज है मेरी नासा शहद की है इसे आशा
मेरी प्यारी प्राणधनी पद्मिनी,
मेरी जीभ है सुकोकिला उसका कमल-अधर है रसीला
मेरे कानों को हरे भुषण-ध्वनि ।
अनंग मेरे तन को जलाये इसीलिये होकर सदय
करुणामयी सुधा-नदी है आयी,
आज हुआ है मेरे भाग का उदय,
पास मेरे हैं प्राणप्रिया राई ।
मेरे दिल की हर तमन्ना और अनदेखा सपना
आज हुआ है सफल,
कान्हा-प्रिया कहे कान्हा प्रसन्न हुये,
अब न होवे विकल ।