( मां यशोदा और ब्रजवासियों का दुख) –
दिल में जले अंगारा आंखों से बहे धारा
दुख से फट जाए,
जो है बिल्कुल अनजान वह चला है वन
मैया कैसे सह पाये ?
( मां यशोदा और ब्रजवासियों का दुख) –
दिल में जले अंगारा आंखों से बहे धारा
दुख से फट जाए,
जो है बिल्कुल अनजान वह चला है वन
मैया कैसे सह पाये ?
शचीनन्दन शचीदुलाल गोठ चले पगे पगे[1],
रोहिणी कुंवर निताइचांद आगे आगे भागे ।
शचीनन्दन गोरा करे कितना प्यार
‘’धवली’’ ‘’शांवली’’ बोल पुकारे बार बार ।
सुनकर संकेत-वेणु जो बजाया कानु
सुमुखी एक कमरे में किया प्रवेश,
ओ लाली मेरी प्यारी दुलारी
कहकर जसोदा सजाये,
चमकीले लट काले घन-घट,
संवारकर वेणी बनाये ।
योगपीठाम्बुज से उतरकर गोरा,
ब्रज के स्मरण में हो गये भोरा ।
पीताम्बर घनश्याम द्विभुज सुन्दर,
कण्ठ में वनमाला, गुंजे मधुकर ।
शची मां कितने ही भुषणों से
सजा रही हैं गोराचांद को प्यार से ।
करके पिछ्ली यादें , प्रभु विभोर हुये,
पार्षदों को लेकर प्रभु भाव में डूब गये ।
रसोई से मलिना हुयी हसीना
बैठीं बाहर आकर,
पसीने से टलमल वह अंग झलमल
जैसे हों दिनकर ।