आज वन में आनन्द रसिया
खेल-मस्ती में मस्त होकर राखाल झूमे विभोर होकर
और दूर चलीं गयीं गैया ।
आज वन में आनन्द रसिया
खेल-मस्ती में मस्त होकर राखाल झूमे विभोर होकर
और दूर चलीं गयीं गैया ।
माता को विदा कर चले हरि गोठ की ओर
पुकारे, ‘ सुनो भैया ’!
न जायेंगे मैदान आज चलो चलें गिरिराज
हांककर ले चलो गैया ।
जब वन जाते हैं कान्हा
और लगाते हैं वेणू का निशाना,
मेरी कसम खाओ गौओं के आगे न जाओ
लाल नीलमणि, लूं तेरी बलई,
पास में चराना धेनू और बजाना मोहन-वेणू
ताकि घर बैठे मुझे दे सुनाई ।
मैया अंगपे हाथ फेरे और मुंह को पोंछे,
थन-खीर और नयन-नीर से धरती को सींचे ।
पकड़कर मां का कर बोले प्यारे दामोदर,
‘’शुभ काम में ना करो दुख,
हमारे कुल का धर्म ‘’गोचारण’’ हमारा कर्म,
करने से मिलेगा सुख ।
शचीनन्दन शचीदुलाल गोठ चले पगे पगे[1],
रोहिणी कुंवर निताइचांद आगे आगे भागे ।
शचीनन्दन गोरा करे कितना प्यार
‘’धवली’’ ‘’शांवली’’ बोल पुकारे बार बार ।
सुनकर संकेत-वेणु जो बजाया कानु
सुमुखी एक कमरे में किया प्रवेश,
ओ लाली मेरी प्यारी दुलारी
कहकर जसोदा सजाये,
चमकीले लट काले घन-घट,
संवारकर वेणी बनाये ।