राधारानी बोल रहीं हैं –
सौन्दर्य नहीं, अमृत-सिन्धु, उस तरंग का एक बिन्दु,
नाज़नीनों के चित्त को डूबाये।
कृष्ण की ये नर्म-कथाएं हैं सुधामय गाथाएं
तरुणियों के कानों को सुहायें ।
सौन्दर्य नहीं, अमृत-सिन्धु, उस तरंग का एक बिन्दु,
नाज़नीनों के चित्त को डूबाये।
कृष्ण की ये नर्म-कथाएं हैं सुधामय गाथाएं
तरुणियों के कानों को सुहायें ।
कानू को भेजकर वन है यशोदा का विषाद मन
राधिका को लिया आग़ोश में,
दुख में हुई बावली न निकले बोली
वसन भीगा आंसूवन में ।
आज वन में आनन्द रसिया
खेल-मस्ती में मस्त होकर राखाल झूमे विभोर होकर
और दूर चलीं गयीं गैया ।
माता को विदा कर चले हरि गोठ की ओर
पुकारे, ‘ सुनो भैया ’!
न जायेंगे मैदान आज चलो चलें गिरिराज
हांककर ले चलो गैया ।
जब वन जाते हैं कान्हा
और लगाते हैं वेणू का निशाना,
मेरी कसम खाओ गौओं के आगे न जाओ
लाल नीलमणि, लूं तेरी बलई,
पास में चराना धेनू और बजाना मोहन-वेणू
ताकि घर बैठे मुझे दे सुनाई ।
मैया अंगपे हाथ फेरे और मुंह को पोंछे,
थन-खीर और नयन-नीर से धरती को सींचे ।
शचीनन्दन गोरा करे कितना प्यार
‘’धवली’’ ‘’शांवली’’ बोल पुकारे बार बार ।
सुनकर संकेत-वेणु जो बजाया कानु
सुमुखी एक कमरे में किया प्रवेश,