अपरूप कुंड की शोभा राई-कानू मनोलोभा
चारों तरफ शोभे चार घाट
विविध रत्नों की छटा अपूर्व सीढ़ियों की घटा
स्फटिक मणियों से बना घाट ।
अपरूप कुंड की शोभा राई-कानू मनोलोभा
चारों तरफ शोभे चार घाट
विविध रत्नों की छटा अपूर्व सीढ़ियों की घटा
स्फटिक मणियों से बना घाट ।
करो तैयारियां सभी सखियां
होकर तुम तत्पर,
सावधान बनके सुर्यपूजा करके,
जल्दी लौटना घर ।
कानू को भेजकर वन है यशोदा का विषाद मन
राधिका को लिया आग़ोश में,
दुख में हुई बावली न निकले बोली
वसन भीगा आंसूवन में ।
Radhe Radhe !!
Since a few days, i am carrying on some sweet ‘nonk – jhonk’ with my dear dear Vijay dada.
What is special is that the poetic-bug seems to have bitten him as well, and we are indulging … Read more >
आज वन में आनन्द रसिया
खेल-मस्ती में मस्त होकर राखाल झूमे विभोर होकर
और दूर चलीं गयीं गैया ।
जब वन जाते हैं कान्हा
और लगाते हैं वेणू का निशाना,
मेरी कसम खाओ गौओं के आगे न जाओ
लाल नीलमणि, लूं तेरी बलई,
पास में चराना धेनू और बजाना मोहन-वेणू
ताकि घर बैठे मुझे दे सुनाई ।
पकड़कर मां का कर बोले प्यारे दामोदर,
‘’शुभ काम में ना करो दुख,
हमारे कुल का धर्म ‘’गोचारण’’ हमारा कर्म,
करने से मिलेगा सुख ।
( मां यशोदा और ब्रजवासियों का दुख) –
दिल में जले अंगारा आंखों से बहे धारा
दुख से फट जाए,
जो है बिल्कुल अनजान वह चला है वन
मैया कैसे सह पाये ?
शचीनन्दन शचीदुलाल गोठ चले पगे पगे[1],
रोहिणी कुंवर निताइचांद आगे आगे भागे ।